गागर में सागर को समेटने का प्रयास किया है ‘दीपक’ ने ‘दीप और पतंग’ के माध्यम से – पुस्तक समीक्षा
पुस्तक समीक्षा
गागर में सागर को समेटने का प्रयास किया है ‘दीपक’ ने ‘दीप और पतंग’ के माध्यम से
पुस्तक : दीप और पतंग
रचनाकार : प्रदीप कुमार दाश “दीपक”
विधा : हाइकु
प्रकाशक : सर्वभाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली
प्रकाशन वर्ष : 2021
मूल्य : ₹ 200/-
पृष्ठ : 116
समीक्षक : डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
‘हाइकु’ अपेक्षाकृत एक कठिन विधा है; क्योंकि इसमें कम से कम शब्दों या कहें महज 17 वर्णों में ही एक पूर्ण भाव की अभिव्यक्ति की जाती है। आज हाइकु के नाम पर जहाँ अनगिनत तथाकथित हाइकुकार 5-7-5 वर्णों की महज शब्दजाल बुनकर ई-मैगजीन, सहयोग राशि आधारित साझा संग्रह, स्वयं के खर्च पर प्रकाशित संग्रह और सोसल मीडिया में कचरा परोस रहे हैं, वहाँ प्रदीप कुमार दाश ‘दीपक’ जैसे युवा साहित्यकार भी हैं, जो अद्भुत बिम्ब और प्रतीक योजना के साथ गंभीर हाइकु लेखन कर इस विधा को समृद्ध करने में लगे हुए हैं। आज हिन्दी हाइकु जगत में प्रदीप कुमार दाश जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। हाइकु विधा पर ही हिन्दी, उड़िया और छत्तीसगढ़ी भाषा में उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने हाइकु की दर्जनभर पुस्तकों का संपादन भी किया है, जिसमें उन्होंने देशभर के उत्कृष्ट हाइकुकारों की हाइकु को पिरोने का सफल प्रयास किया है। दाश जी का सन् 2000 में प्रकाशित प्रथम हाइकु संग्रह ‘मइनसे के पीरा’, जो छत्तीसगढ़ी भाषा में है, उसे छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रथम हाइकु संग्रह माना जाता है। प्रख्यात समीक्षक अजय चरणम् जी के अनुसार, “प्रदीप कुमार दाश हाइकु की दुनिया के राजकुमार हैं, इनका सानी नहीं।”
”देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर” की बात चरितार्थ करते हुए महज 17 अक्षरों अर्थात् बहुत ही कम शब्दों में पूरी बात कहना कोई आसान काम नहीं, परंतु प्रदीप दाश की सर्वभाषा ट्रस्ट नईदिल्ली से हाल ही प्रकाशित हाइकु संग्रह ‘दीप और पतंग’ में संग्रहित कुल 704 हाइकुओं में से बहुसंख्यक हाइकु बहुत ही गंभीर भावों को समेटे हुए हैं। पुस्तक में हाइकु विधा के विकास पर आधारित उनका 20 पेज का आलेख बहुत ही ज्ञानवर्धक और उपयोगी है।
यह पुस्तक उन्होंने अपने स्वर्गीय पिताश्री धनपति दाश जी को समर्पित किया है। समर्पण की अभिव्यक्ति भी चार गंभीर भावों से युक्त हाइकु छंद में। उदाहरणार्थ, ”मेरी दुनिया/पिता कभी आसमां/कभी वो धरा।” पढ़कर हर पुत्र अपने पिता के प्रति श्रद्धावनत हो जाए।
प्रदीप कुमार दाश ‘दीपक’ प्रकृति की गोद में पले-बढ़े हैं। उनका संपूर्ण बाल्यकाल उड़ीसा सीमा पर स्थित छत्तीसगढ़ राज्य के रायगढ़ जिले के एक दूरस्थ एवं पिछड़े ग्राम साँकरा में व्यतीत हुआ है और पिछले लगभग पंद्रह साल से वे छत्तीसगढ़ राज्य के आदिवासी बाहुल्य सरगुजा जिले के छोटे से गाँव रजपुरी में हिन्दी के व्याख्याता के रूप में सेवा दे रहे हैं। उन्होंने प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य, भय, भूख, गरीबी और गरीबों का शोषण बहुत ही करीब से देखा है। यही कारण है कि उनके हाइकु विभिन्न प्रकार की अनुभूतियों का खजाना लिए हुए हैं। वाकई उनके हाइकु हिंदी साहित्य की एक अनमोल धरोहर हैं। उन्होंने हाइकु जैसे छोटे से छंद में अपनी भावाभिव्यक्ति में आँचलिक शब्दों का जो तड़का लगाया है, वह उनके हाइकुओं को बहुत ही सशक्त बनाते हैं।
प्रदीप कुमार दाश हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी रहे हैं, अब तो हिन्दी के व्याख्याता भी हैं। उन्होंने संत कवि कबीरदास, मुंशी प्रेमचंद और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के साहित्य का गहन अध्ययन कर उनकी कुछ कालजयी रचनाओं को अपनी हाइकु में उतारने का सफल प्रयास किया है। कबीरदास की “बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय।” की तर्ज पर प्रदीप दाश हाइकु में लिखते हैं, “गुरु महान/शिष्य को करा गए/ईश्वर भान।”
इसी प्रकार “गुरु कुम्हार शिष कुंभ, गढ़-गढ़ काढ़े खोट। अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।।” की बात दाश जी अपनी हाइकु में इस प्रकार से करते हैं, “गुरु कुम्हार/रौंदे मिट्टी का लौंदा/लाए निखार।”
मुंशी प्रेमचंद जी की कालजयी कहानी ‘पूस की रात’ से प्रेरित दाश जी की यह सुंदर हाइकु देखिए, “पूस की रात/हल्कू जाएगा खेत/मन उदास।”
“कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूढ़े वन माही।” की बात प्रदीप दाश ने इस हाइकु में बहुत ही खूबसूरत तरीक़े से व्यक्त किया है, “नहीं बाहर/भगवान मिलेंगे/झाँक भीतर।”
इसी प्रकार मुंशी प्रेमचंद अमर कृति ‘गोदान’ उपन्यास पर आधारित ये हाइकु उल्लेखनीय हैं, जिसमें उपन्यास के नायक होरी के माध्यम से हर पिता और पति की यह इच्छा कि उसकी संतान (गोबर) और जीवनसंगिनी (धनिया) सदा प्रसन्न रहें, “होरी का मन/गोबर औ धनिया/रहें प्रसन्न।”
प्रदीप कुमार दाश की लिखी हुई यह हाइकु हमें सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की ‘जूही की कली’ की याद दिलाती हैं, “जूही की कली/कुम्हलाने का डर/खिल न सकी।”
इस जगतीतल पर शायद ही ऐसा कोई कवि हुआ होगा, जो अपनी माँ, मातृभूमि और मातृभाषा पर कुछ न लिखा हो। प्रदीप कुमार दाश भी इस बात के अपवाद नहीं हैं। उन्होंने भी अपनी ‘माँ’, मातृभूमि और मातृभाषा पर आधारित अनगिनत खूबसूरत हाइकुओं की रचना की है। यथा, “भोली सूरत/हृदय में बसती/माँ की मूरत।”
इसी प्रकार उनके हिन्दी प्रेम की अभिव्यक्ति इस हाइकु में देख सकते हैं, “सजी है हिन्दी/माँ भारती के माथे/बन के बिंदी।” एक अन्य हाइकु भी द्रष्टव्य है, “सोने सी खरी/चाँदी जैसी उज्ज्वल/निर्मल हिन्दी।”
दाश जी के हाइकु विविध विषयी हैं। हमारे जीवन का शायद ही कोई ऐसा पक्ष हो, जो इनसे अछूता रह गया हो। वे आशुकवि भी हैं। सम- सामयिक घटनाओं पर नजर रखते हैं और उन पर आधारित हाइकु लिखते रहते हैं। उरी हमला, गलवान घाटी पर आतंकी हमला जैसे विषयों पर भी उनकी खूब लेखनी चली है। यथा, “घायल उरी/इंसानियत राह/है लंबी बड़ी।” एक अन्य हाइकु भी द्रष्टव्य है, “माटी की आन/गलवान की घाटी/लहू-लुहान।”
सांप्रदायिक सद्भाव पर आधारित उन्होने कई हाइकु लिखे हैं। एक सुंदर उदाहरण द्रष्टव्य है, “सिक्ख ईसाई/लाल नहीं है लहू/किसके भाई।”
दाश जी ने जीवन के कुछ शाश्वत सत्यों को भी हाइकु के माध्यम से सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया है। जीवन का अंतिम सत्य मरण है। इसकी में खूबसूरत अभिव्यक्ति देखिए, “हिसाब नेक/श्मशान में सबका/बिस्तर एक।” एक अन्य उदाहरण देखिए, “थोड़ी सी राख/अंतिम सत्य यही/फिर भी साख।” दाश जी की यही दार्शनिक वृत्ति उन्हें जीवन के विभिन्न पक्षों को तटस्थ रहकर एक दृष्टा की भाँति देखने को प्रेरित करती है।
प्रदीप दाश गागर में सागर भरना बखूबी जानते हैं। वे महज एक हाइकु में ही महाकाव्य रच देते हैं। आज हम जिस प्रकार से सब तरफ क्रंकीट के जंगल फैलाए जा रहे हैं और मन-मष्तिष्क से विकृत हो रहे हैं, उसकी खूबसूरत अभिव्यक्ति देखिए, “घर थे कच्चे/तब की बात और/मन थे सच्चे।”
दाश जी को प्रकृति से प्रेम है और उनकी कूची ने सुन्दर और प्राकृतिक दृश्यों का खूबसूरत तरीकों से चित्रांकन किया है। उनकी एक सुंदर हाइकु उल्लेखनीय है, “अंधेरी रात/एक दीप बता दे/उसे औकात।”
दाश जी ने कई हाइकु व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। प्रतीकों और बिंबों का सुन्दर प्रयोग इस हाइकु संग्रह की सर्वप्रमुख विशेषता है। प्रतीकार्थ ध्वनित होते हैं, अभिधार्थ बहुत पीछे छूट जाता है और वास्तविक अभिप्रेत अर्थ पूरी तरह पाठक को बाँध लेते हैं। यथा,एक उदाहरण द्रष्टव्य है, “पुतला जला/भीतर का रावण/मुसकुरा रहा।” एक अन्य उदाहरण देखिए, “बूढ़ी माँ हिन्दी/देखभाल करती/बहू अंग्रेजी।”
दाश जी ने इस संग्रह में एक ही विषय पर कई हाइकु लिखे हैं। एक साथ भी और अलग-अलग भी। इनमें कुछ प्रमुख विषय रहे हैं- दीप, पर्यावरण संरक्षण, आतंकी हमला, सैनिक, प्रेम, रावण आदि। ये सभी हाइकु, जिनमें बहुसंख्यक तुकबंदी वाले हैं, बहुत ही अच्छे बने हैं। उन्होंने भावपक्ष, कलापक्ष, भाषा-शैली का विशेष रूप से ध्यान रखा है, इसलिए उत्कृष्ट श्रेणी के हाइकुओं का सृजन करने में सफल हो सके हैं। हाइकुकार प्रदीप दाश जी हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी रहे हैं, यही कारण है कि पुस्तक में कहीं भी व्याकरणिक, छंद या वर्तनीगत त्रुटियाँ नहीं दिखी। उनकी भाषा सशक्त और परिमार्जित है। उसमें भावों की तरलता में डूब कर, मनभावन रस को आत्मसात कर लेने की अद्भुत क्षमता है।
‘दीप और पतंग’ पुस्तक की आवरण एवं पृष्ठ-सज्जा बहुत ही सुंदर एवं आकर्षक है। यह एक पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय पुस्तक भी है, जो हाइकु-प्रेमियों और शोधार्थियों के लिए बहुत ही उपयोगी, रोचक एवं स्तरीय सामग्री से भरा हुआ है। पुस्तक की कीमत भी बहुत अधिक नहीं है। आज के समय में 116 पृष्ठ की हार्डकवर पुस्तक महज 200 रुपए में शायद ही कहीं और मिले। हमें आशा ही नहीं, वरन पूर्ण विश्वास है कि प्रदीप कुमार दाश ‘दीपक’ की पुस्तक “दीप और पतंग” संग्रह हाइकु विधा के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित होगा।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़, 9827914888