कविता

अस्तित्व का दांव

अपनों की हार पर वे उग्र हो जाते हैं,
जातियता से बाहर आ लेख नहीं दे पाते हैं,
बाबा साहब ने ब्रिटिशों को कहा हो कृतघ्न,
कई युद्ध जिताने पर नहीं हुए कृतज्ञ,
प्लासी प्रथम और भीमा कोरेगांव
नहीं था कोई खिलवाड़,
तभी तो अछूतों को नहीं दिए मताधिकार,
भूल न जाओ सिद्धनाग की सेना
लड़ी थी कितनी प्रचंड,
सौ पांच ने लाया घुटनों पर
तोड़ा अट्ठाइस हजारियों का घमंड,
जो अत्याचार सहे थे निर्भीक निडर महारों ने,
दिन में चलना कर दिया था दूभर
पेशवाओं के जातिय अत्याचारों ने,
नागवंशियों का अंग्रेजों से मिल लड़ना
जातिवादियों को नहीं सुहाता है,
उन वीरों की वीरता पर
देशद्रोह की तोहमत लगाता है,
वे भूल जाते हैं तब कोई देश न था भारत,
जमीन के चंद टुकड़े खातिर लड़ने
तब के राजाओं में था महारथ,
धर्म के नाम पर तब था इतना प्रतिबंध,
नागवंशियों को लगता था कि
कैसे तोड़ें इन कलंकित मानसिकताओं का घमंड,
भीमा कोरेगांव की घटना नहीं था देश विरुद्ध,
हम भी हैं इंसान बताने नागों ने किया था युद्ध,
करोड़ों दमितों को ये घटना दिलाता है याद,
वीरों के वंशज हैं हम क्यों करें किसी से फरियाद,
वो जीत बताता है हम में है बहुत आक्रोश,
है हममें भी औरों से ज्यादा बुद्धि,बल और जोश।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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