यूं ही अलविदा हो गए
कितने युद्ध मंथन
कितने क्रूर लांछन
कितने क्षणिक
कितने लाक्षणिक
है तुम्हारा ठहराव!
आना जाना तो है
जगत का रीत
दंगल, हल्ला बोल,
बवाल चुनाव में
गया साल बीत!
राहें अफवाहें
मिट्टी पत्थर गिट्टी
जंगल मंगल
मिलने वालों को
न मिलने वालों को
सभी को धन्यवाद!
इस बरस भी
फिर मौका मिलेगा?
कुछ बाकी क्षूधाएं
मन में ही रखकर,
धुंधली धुंधली सी रास्ते
कश्मीर से आती
ठंडी हवा के झोंके
मधुशालाओं में
लंबी-लंबी कतारें,
इन सभी को मटमैले
झोले में ठुसकर
एक अंजुरी प्यास लेकर
यूं ही अलविदा हो गए!
— मनोज शाह मानस