स्वामी विवेकानन्द से अनुप्रेरित- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
शिक्षा का सार्वकालिक महत्व है। किसी भी युग में शिक्षा के महत्व को नजरअन्दाज नहीं किया गया। शिक्षा के महत्व के कारण ही तो गुरु को गोविन्द से पहले स्थान देने की बात कही जाती है। ज्ञान किसी भी क्षेत्र में महत्वपूर्ण होता है। ज्ञान के बिना विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसे विद्या, शिक्षा, ज्ञान, कौशल, हुनर, चतुराई, सीख, उपदेश, प्रवचन आदि कुछ भी कह लें किन्तु किसी न किसी रूप में ज्ञान के महत्व को स्वीकार करना ही पड़ेगा। निरक्षर व्यक्ति भी गुरु के महत्व को स्वीकार करता है। कुछ प्राचीन मान्यताओं के अनुसार व्यक्ति को गुरु बनाना आवश्यक है। गुरु के बिना व्यक्ति निगुरा कहा जाता है और मृत्यु के बाद परलोग में भी उसकी कोई गति नहीं है। गुरु का महत्व वास्तव में ज्ञान का ही महत्व है। भारतीय परंपरा में ही नहीं किसी भी देश में गुरु और ज्ञान के महत्व को विभिन्न प्रकार से वर्णित किया जाता रहा है। प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। कोई भी व्यक्ति अपने आप को अज्ञानी रखना और अज्ञानी प्रदर्शित करना नहीं चाहता।
शिक्षा की आवश्यकता या महत्व के बारे में किसी प्रकार का विवाद नहीं है। हाँ, शिक्षा के अर्थ और शिक्षण विधियों के बारे में विचार विभिन्नता रही है और शायद सदैव रहेगी। व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक जे.बी.वाटसन का प्रसिद्ध कथन है कि तुम मुझे नवजात शिशु दे दो। मैं उसको कुछ भी बना सकता हूँ, डाॅक्टर, वकील, नेता, चोर, भिखारी आदि। दूसरी ओर भारतीय आदर्शवाद कहता है कि मनुष्य के अन्दर ज्ञान जन्मजात होता है। शिक्षा तो केवल आवरण हटाकर उसे प्रस्फुटित करती है। भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। ज्ञान स्वभाव-सिद्ध है; ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब अन्दर ही है। समस्त ज्ञान, चाहे वह लौकिक हो अथवा अलौकिक मनुष्य के मन में ही है। उस पर आवरण पड़ा रहता है। उस आवरण को हटाना ही सीखना है। जो जितना आवरण हटाने में समर्थ होता है, वह उतना ही ज्ञानी हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, जिस पर से यह आवरण पूरा हट जाता है, वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो जाता है।
महात्मा गांधी भी इसी विचारधारा के विचारक हैं। उनके अनुसार, ‘‘शिक्षा से मेरा तात्पर्य बच्चे और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा के सर्वांगीण सर्वश्रेष्ठता को सामने लाना है। साक्षरता शिक्षा का अन्त नहीं है, आरंभ भी नहीं है। यह उन साधनों में से एक है जिससे पुरुषों और महिलाओं को शिक्षित किया जा सकता है। साक्षरता अपने आप में कोई शिक्षा नहीं है।’’ गांधी जी मूूलतः एक राजनीतिक विचारक थे। उनके द्वारा शिक्षा पर व्यक्त किए गए विचार भारतीय आदर्शवाद से अनुप्रेरित थे। गांधी जी का चिंतन स्वामी विवेकानन्द से भी प्रेरित है।
स्वामी विवेकानन्द के विचार के अनुसार, हम किसी को कुछ सिखा नहीं सकते। हम स्वंय ही अपने को सिखा सकते हैं। वास्तव में किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे को नहीं सिखाया। हममें से प्रत्येक को अपने आपको सिखाना होगा। बालक स्वयं अपने को सिखाता है। बाहर के गुरु तो कुछ सुझाव, सूचना या प्रेरणा देने वाले कारण मात्र हैं। हमारे ही अनुभव और विचार की शक्ति के द्वारा हमारा अन्तर्निहित ज्ञान स्पष्ट होता है और हम अपनी आत्मा में उसकी अनुभूति करने लगते हैं। मनुष्य की आत्मा में अनन्त शक्ति निहित है, चाहे वह जानता हो या न जानता हो। इसको जानना और बोध होना ही ज्ञान है। जिस तरीके से यह ज्ञान या बोध होता है, उस तरीके को ही शिक्षित होना कहा जाता है। यही शिक्षा का तत्व है। इसी को शिक्षा का सार कहा जा सकता है। स्वामी जी के अनुसार तुम किसी बालक को शिक्षा देने में उसी प्रकार असमर्थ हो, जैसे कि किसी पौधे को बढ़ाने में। पौधा अपनी प्रकृति का विकास आप ही कर लेता है। आपका काम तो सिर्फ इतना है कि जमीन को कुछ पोली बना दो, ताकि उसमें से उगना आसान हो जाय। घेरा बनाकर उसकी सुरक्षा सुनिश्चित कर दो ताकि कोई उसे नष्ट न कर दे। मिट्टी, पानी और वायु का समुचित प्रबंध कर दो। वह अपनी प्रकृति के अनुसार जो भी आवश्यक होगा, लेते हुए स्वयं ही अपना विकास कर लेगा। इसी प्रकार बालक को सिखाने का वातावरण देना है। वह अपनी प्रकृति के अनुसार अपने अन्तर्निहित ज्ञान को स्वयं ही प्रकट कर लेगा। गुरु का काम केवल उसे प्रकट होने के अवसर प्रदान करना है। हमें बालकों के लिए केवल इतना ही करना है कि वे अपने हाथ, पैर, कान और आँखों के उचित उपयोग के लिए अपनी बुद्धि का प्रयोग करना सीखें।
स्वामी जी के अनुसार सीखने के स्वतंत्र अवसर मिलने चाहिए। बालकों को ठोक-पीटकर शिक्षित बनाने की जो प्रणाली है, उसका अन्त कर देना चाहिए। स्वामी जी के इस विचार को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में पूर्णतः स्वीकार कर लिया गया है। इसी के अनुसार विद्यार्थी को स्वतंत्रता देने की कोशिश की जा रही है। स्वामी जी निषेधात्मक शिक्षा का विरोध करते हुए कहते थे, हमें विधायक विचार ही सामने रखने चाहिए। निषेधात्मक विचार लोगों को दुर्बल बना देते हैं। हर एक विषय में हमें मनुष्यों को उनके विचार और कार्य की भूलें नहीं बतानी चाहिए, वरन उन्हें वह मार्ग दिखा देना चाहिए, जिससे वे उन सब बातों को और भी सुचारू रूप से कर सकें। विद्यार्थी की आवश्यकता के अनुसार शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन होना चाहिए। वर्तमान समय में ऐसा ही करने की कोशिश शिक्षा नीति 2020 के द्वारा करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं।
स्वामी जी के अनुसार यदि कोई यह कहने का दुस्साहस करे कि ‘मैं इस नारी या इस बालक के उद्धार का उपाय करूँगा।’ तो वह गलत है, हजार बार गलत है। दूर हट जाओ! वे अपनी समस्याओं को स्वयं हल कर लेंगे। तुम सर्वज्ञता का दंभ भरने वाले होते कौन हो? तुम केवल सेवा कर सकते हो। प्रभु की संतानों की सेवा करो। स्वामी जी इस प्रकार शिक्षा पर जोर देते हैं किन्तु बाहरी शिक्षा पर नहीं, वे मनुष्य के अन्दर अन्तर्निहित शक्तियों के प्रकटीकरण का वातावरण उपलब्ध करने के बहुआयामी अवसर उपलब्ध करवाने की अपेक्षा करते हैं। वर्तमान समय में विद्यार्थी की स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हुए उसकी रुचि के अनुसार विषय चुनते हुए उसकी गति के अनुसार विकास के अवसर सुनिश्चित करने के प्रयत्न राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में किए जा रहे हैं।