शिक्षा एवं व्यवसाय

चरित्र गठन का आधार- शिक्षा व अभ्यास

हम चरित्र की बात समय-समय पर नहीं, हर समय करते हैं। किसी के चरित्र को अच्छा घोषित करते हैं तो किसी के चरित्र को बुरा घोषित कर दिया जाता है। सभी शैक्षणिक संस्थानों द्वारा चरित्र प्रमाण पत्र जारी किया जाता है। बिना चरित्र के सत्यापन के किसी व्यक्ति को नौकरी पर नहीं रखा जा सकता। चरित्र को लेकर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न प्रकार की बातें की जाती हैं। किसी के कार्य व्यवहार को लेकर कह दिया जाता है कि उसका चरित्र ही ठीक नहीं है। उससे और क्या अपेक्षा की जा सकती है? किसी व्यक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा जाता है कि उस व्यक्ति का चरित्र बेदाग है। उसकी दाद देनी पड़ेगी। वह उत्कृष्ट कोटि का चरित्रवान है। वास्तव में चरित्र को हो व्यक्तित्व का मुख्य भाग कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। केवल शरीर और आत्मा का संयोग ही व्यक्ति नहीं होता। व्यक्तित्व का गठन व्यक्ति के स्वभाव, उसकी आदतों, उसके संस्कार और उसके चरित्र के सम्मिलन से होता है। समाज में व्यक्तित्व का आधार व्यक्ति का चरित्र ही होता है। विभिन्न सामाजिक शैक्षणिक संस्थाएँ भी अपने नागरिकों के चरित्र गठन को आकार देने का प्रयास करती रहती हैं। यह अलग बात है कि उनको कितनी सफलता मिलती है।

व्यक्ति और समाज दोनों के दृष्टिकोण से चरित्र महत्वपूर्ण विषय है। चरित्र को न तो व्यक्ति नजर अन्दाज कर सकता है और न ही कोई समाज। वास्तव में यह विचार का विषय है कि चरित्र है क्या? स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, मनुष्य का चरित्र उसके विभिन्न विचारों की समष्टि है, उसके मन के विभिन्न झुकावों का योग है। हम वही हैं, जो हमारे विचारों ने हमें बनाया है। स्वामी जी का यह कथन यथार्थ है। वास्तव में हमारे विचार ही कार्य रूप में परिणत होकर हमारे कर्मो का गठन करते हैं। भाग्य वादियों को भी अन्त में यह स्वीकार करना ही पड़ता है कि कर्म से भाग्य को बदला जा सकता है। संत कवि तुलसीदास ने भी कर्म की प्रधानता को स्वीकार किया है। कोई भी व्यक्ति कर्म किए बिना रह ही नहीं सकता। कर्म जीवन के लिए अनिवार्य हैं। कर्म निरंतर चलते रहते हैं। हमारे कर्म ही हमारी आदत बन जाते हैं। हमारी आदतें ही हमारे कर्मो के स्तर का निर्धारण करती हैं। हमारी आदतों के अनुरूप ही हमारी प्रवृत्तियाँ बनती हैं। हमारा व्यवहार व आचरण हमारी प्रवृत्तियों के अनुसार ही चलता है। इस प्रकार विचार हमारे चरित्र का आधार होते हैं। समझने की आवश्यकता है कि चरित्र का आशय व्यक्ति के लैंगिक संबन्धों तक सीमित नहीं होता। समाज में कई बार चरित्र के अर्थ को स्त्री-पुरुष के लैंगिक संबन्धों तक सीमित कर दिया जाता है। यह उचित अर्थ नहीं है। इस अर्थ में तो कोई भ्रष्टाचारी चरित्रवान सिद्ध किया जा सकता है। वास्तव में चरित्र का आशय व्यक्ति के सभी गुण-अवगुणों, आदतों, आचरणों व व्यवहारों के योग से लिया जाना चाहिए।

विचारों का प्रस्फुरण भी हमारे अनुभवों से होता है। व्यक्ति अपने अनुभवों से ही सबसे अधिक सीखता है। अपने अनुभव से प्राप्त ज्ञान ही सबसे अधिक विश्वसनीय होता है। हमारे अनुभव हमें सुख प्रदान करने वाले भी होते हैं और दुख प्रदान करने वाले भी। सुख और दुख दोनों ही प्रकार की अनुभूतियाँ हमें सीख देती हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर पुराणों में नर्क और स्वर्ग की संकल्पना की गई है। नर्क और स्वर्ग की संकल्पना के द्वारा व्यक्ति के आचरण को संयमित करने का सुंदर प्रयास किया गया है। सुख और दुख दोनों ही हमारे कर्मो को प्रभावित करते हैं। हमें शिक्षा देते हैं। हाँ! सुख की अपेक्षा दुःख का अधिक योगदान रहता है। सुख की अपेक्षा दुःख ही बड़ा शिक्षक होता है। विलास और ऐश्वर्य में पलते हुए, फूलों की सेज पर सोते हुए कौन महान बना है? दुःखों की अनूभूति से ही बुधत्व आता है। दुःखों की अनुभूति से ही राम, कृष्ण और बुद्ध विकसित होते हैं।

हमारा प्रत्येक कार्य, हमारा प्रत्येक अंग संचालन, हमारा प्रत्येक विचार हमारे चित्त पर एक संस्कार छोड़ जाता है; भले ही ये संस्कार स्पष्ट न हों, तथापि अन्दर ही अन्दर कार्य करने में प्रबल और प्रभावी होते ही हैं। प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन संस्कारों की समष्टि द्वारा ही नियमित होता है। यदि कोई मनुष्य लगातार बुरे शब्द सुनता रहे, बुरे विचारों पर सोचता रहे, बुरे कर्म करता रहे, तो उसका मन बुरे संस्कारों से ही पूर्ण हो जाएगा और अनजाने ही वे बुरे संस्कार उसके विचारों और कार्यो पर प्रभाव डालेंगे। विचार और कार्यो के परिणाम व्यक्ति के भविष्य को प्रभावित करेंगे। इस प्रकार व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माण स्वयं ही करेगा। इसी कारण यह कहा जाता है कि व्यक्ति कर्मो के द्वारा अपने भाग्य को बदल भी सकता है। इस बात को हमें सर्व स्वीकृत करना पड़ेगा कि विचार ही कर्मो का अधिष्ठाता है। हाँ! वह विचार वास्तविक होना चाहिए। सामान्यतः यह भी देखने में आता है कि व्यक्ति मंच से जो विचार व्यक्त करता है, निजी जीवन में उसका व्यवहार उसके विपरीत पाया जाता है। ऐसी स्थिति में वह मंच से जो बोल रहा है। वह झूठ है। प्रदर्शन मात्र है। वह स्वयं उसे सही नहीं मानता। यदि उसे सही मानता तो उसके अनुरूप व्यवहार करता। उसका वास्तविक विचार वही है, जो वह कर रहा है। मन, वचन और कर्म की एकता ही किसी व्यक्ति की वास्तविकता को प्रदर्शित करती है।

संस्कार आदतों का गठन करते हैं। कहा जाता है कि आदत द्वितीय स्वभाव है। इसका आशय यह भी है कि आदतों से ही व्यक्ति का स्वभाव विकसित होता है। स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं कि वास्तव में यही प्रथम स्वभाव भी है और मनुष्य का सारा स्वभाव भी है। वास्तव में हमारे अधिकांश कर्म हमारी आदतों से ही परिचालित होते हैं। सब कुछ आदत का ही फल है। इस विचार से हमें थोड़ी सांत्वना मिलती है, क्यों कि हमारा वर्तमान स्वभाव अभ्यासवश है, तो हम जागरूक रहकर नए अभ्यास से पुराने अभ्यास को नष्ट भी कर सकते हैं। बुरी आदत का एकमात्र प्रतिकार है- उसके विपरीत आदत। सभी खराब आदतें अच्छी आदतों द्वारा समाप्त की जा सकती हैं। किसी विचारक का विचार है कि किसी कार्य को जागरूक रहकर चालीस दिन तक करते रहने से वह कार्य हमारी आदत बन जाता है। इस प्रकार अपनी आदतों, संस्कारों और चरित्र का पुनर्गठन भी करना संभव है। भलाई और बुराई दोनों का ही चरित्र गठन में योगदान रहता है। अच्छे और बुरे समझे जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति का अपने आप में एक चरित्र होता है। हम जिसे चरित्रहीन कहते हैं, वास्तव में उसका भी एक चरित्र तो होता ही है। हाँ! उसके चरित्र की प्रवृत्तियाँ नकारात्मक हो सकती हैं। कोई भी व्यक्ति अच्छा या बुरा नहीं होता। अच्छी या बुरी उसकी आदतें होती हैं। अपनी आदतों को बदलकर व्यक्ति अपने आपको बदल सकता है।

स्पष्ट है कि चरित्र पुनः पुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है। इस प्रकार पुनःपुनः अभ्यास के द्वारा हम अपने चरित्र का पुनर्गठन कर सकने में समर्थ हैं। हम स्वयं अपने चरित्र के पुनर्गठन के द्वारा अपने कर्म में परिवर्तन लाकर अपने भाग्य का निमार्ण कर सकते हैं। क्योंकि कर्म ही हमारे भाग्य का निर्धारण करते हैं। कर्म का यह जाल हमने ही अपने चारों तरफ बुन रखा है। हमें अपने अज्ञान के कारण यह प्रतीत होता है कि हम बद्ध हैं। हम बाह्य सहायता के लिए चीख-पुकार करते हैं किंतु कोई भी बाहरी शक्ति हमारी सहायता के लिए नहीं आती। हमें अपनी सहायता स्वयं ही करनी है। स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है, ‘मैंने अपने जीवन में अनेक गलतियाँ की हैं। किंतु स्मरण रहे कि उन गलतियों के बिना मैं जो आज हूँ, वह नहीं रहता।’ स्वामी जी के इस कथन से स्पष्ट है कि गलतियों से सीख लेकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। गलतियों का कारण अज्ञान है। गलतियों से सीख लेना ही शिक्षा है। शिक्षा के द्वारा ज्ञान प्राप्त कर हम अपने अज्ञान को समाप्त कर सकते हैं। मनुष्य की आत्मा स्वभाव से ही स्वयं प्रकाश है। आधुनिक वैज्ञानिक भी क्रम विकास का सिद्धांत स्वीकार करते हैं। क्रम विकास का क्या कारण है? वह है, इच्छा। अपनी इच्छाशक्ति का प्रयोग करते रहो वही तुम्हें आगे ले जाएगी। इच्छा और शक्ति मिलकर सब कुछ कर सकती हैं। इसलिए विकास के लिए आवश्यकता है शिक्षा व अभ्यास के द्वारा चारित्र्य गठन की और इच्छाशक्ति को सबल बनाने की।

निःसन्देह हम अपने चरित्र का पुनर्गठन कर सकते हैं। शिक्षा के द्वारा जाग्रत होकर अपने अभ्यास के द्वारा अपनी आदतों में परिवर्तन लाकर अपने स्वभाव में परिवर्तन करते हुए अपने चरित्र का पुनर्गठन संभव है। कहने के लिए तो हम कह सकते हैं कि चरित्र का पुनर्गठन संभव है, किन्तु यह इतना सरल भी नहीं है कि कोई भी इसे कर सकता हो। यह अत्यन्त मुश्किल, असंभव नही ंतो असंभव जैसा अवश्य है। यह एक समय किया जाने वाला कार्य नहीं है। यह संपूर्ण जीवन शैली को ही बदलने वाला कार्य है। स्वामी विवेकानन्द का कथन है, ‘यदि तुम सचमुच किसी व्यक्ति के चरित्र को जाँचना चाहते हो, तो उसके बड़े कार्यो से उसकी जाँच ना करो। मनुष्य के अत्यंत साधारण कार्यो से उसकी जाँच करो। वास्तव में वे ही ऐसी बातें हैं, जिनसे एक महापुरुष के चरित्र का पता लग सकता है। कुछ विशेष बड़े अवसर तो छोटे से छोटे मनुष्य को भी किसी न किसी प्रकार का बड़प्पन दे ही देते हैं। परन्तु वास्तव में बड़ा तो वही है जिसका चरित्र सदैव और सभी अवस्थाओं में महान रहता है। कुछ विशेष अवसरों पर विशेष व्यवहार करना सरल हो सकता है किंतु साधारणतया अपने कार्य व व्यवहार को बदलना सरल नहीं है। यह स्वभाव को बदलना है। इसके लिए निरंतर साधना की आवश्यकता है। यह भी कह सकते हैं कि इसके लिए प्रति पल जागरूक रहकर अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते रहने की भी आवश्यकता पड़ सकती है।

स्वामी विवेकानन्द इस संदर्भ में स्पष्ट रूप से आह्वान करते हैं कि अपने चरित्र का निर्माण करो। चरित्र ही व्यक्तित्व का गठन करता है। स्वामी विवेकानन्द का स्पष्ट निर्देश है- ‘ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करो, एक क्षण में सब अशुभ चला जाएगा। अपने चरित्र का निर्माण करो और अपने प्रकृत स्वरूप को- उसी ज्योतिर्मय, उज्ज्वल, नित्य शुद्ध स्वरूप को प्रकाशित करो, तथा प्रत्येक व्यक्ति में उसी आत्मा को जगाओ।’ स्वामी जी के द्वारा दिए लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें शिक्षा व अभ्यास के द्वारा अविरल प्रयत्न करने होंगे। यह एक दिन, एक माह या एक वर्ष का कार्य नहीं है। यह आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है।

डॉ. संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी

जवाहर नवोदय विद्यालय, मुरादाबाद , में प्राचार्य के रूप में कार्यरत। दस पुस्तकें प्रकाशित। rashtrapremi.com, www.rashtrapremi.in मेरी ई-बुक चिंता छोड़ो-सुख से नाता जोड़ो शिक्षक बनें-जग गढ़ें(करियर केन्द्रित मार्गदर्शिका) आधुनिक संदर्भ में(निबन्ध संग्रह) पापा, मैं तुम्हारे पास आऊंगा प्रेरणा से पराजिता तक(कहानी संग्रह) सफ़लता का राज़ समय की एजेंसी दोहा सहस्रावली(1111 दोहे) बता देंगे जमाने को(काव्य संग्रह) मौत से जिजीविषा तक(काव्य संग्रह) समर्पण(काव्य संग्रह)

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