ग़ज़ल
वफ़ा मेरी इबादत माँगती है।
सुनो अब यह ख़िलाफ़त माँगती है।।
न हो अब राह में कोई भटकता।
इसी की ही सदाकत माँगती है।।
किया धोखा वफ़ा में ही सुनो तब।
इसी की ही महारत माँगती है।।
मसीहा बन सके कोई यहाँ पर।
तभी तो यह ख़िलाफ़ माँगती है।।
कभी भी इश्क़ में कोई न आये।
यही सारी सियासत माँगती है।।
मुहब्बत जो करे उसका पता हो।
यही दुनिया रवायत माँगती है।।
हुआ जो इश्क़ फिर छोड़ें नहीं वो।
मुहब्बत कब इज़ाज़त माँगती है।
— रवि रश्मि ‘अनुभूति’