कहानी- रहस्य
शहर के इस कोने में रोज़ ही भीड़ उमड़ती थी—ऑफिस जाने वालों की तेज़ रफ्तार, सब्ज़ी वालों की आवाज़ें, और फुटपाथ पर बैठे खिलौने बेचते बच्चे। उसी भीड़ में एक चेहरा ऐसा था, जो हर रोज़ दिखता, फिर भी अनदेखा रह जाता—एक पगली। उसे लोग “झबरी” कहते थे—उसके उलझे हुए बालों की वजह से। उसका चेहरा मैलेपन और धूल से ढका रहता, दाँत पीले और टेढ़े-मेढ़े, बदन पर चिथड़ों के सिवा कुछ नहीं, और शरीर पर घावों के ऐसे निशान, जो वक्त से नहीं, समाज की बेरहमी से बने थे। कभी वह नाचती थी, कभी रोती थी, कभी राह चलते आदमी को गालियाँ देती, तो कभी सड़कों से कूड़ा बटोरती। लोग उसे देखकर हँसते, अश्लील टिप्पणियाँ करते, कुछ तो पत्थर भी मारते—जैसे वह इंसान नहीं, एक चलती-फिरती तमाशा हो। मैं अक्सर उसे देखा करती थी, लेकिन कभी रुकी नहीं। मैं भी शायद उस भीड़ का हिस्सा थी, जो सहानुभूति तो रखती थी, पर समय नहीं।
कुछ वर्षों बाद, जब मैं प्रवास से लौटी, वही पगली एक बार फिर मेरे रास्ते में आई—लेकिन आज कुछ अलग था। वह अब अकेली नहीं थी। उसकी छाती से एक नन्हा बच्चा चिपका था—बिलकुल नवजात। वह उसे संभाले हुए थी, जैसे कोई शेरनी अपने शावक को बचाए हो। उसकी चाल में लचक थी, पर आँखों में अजीब सा धैर्य था—एक माँ जैसा।
मैं ठिठक गई। “ये बच्चा कहाँ से आया?” “क्या ये उसका है?” “किसने इसे जन्म दिया?” मन में सवाल उमड़ने लगे। क्या कोई उसे ज़ोर-ज़बरदस्ती का शिकार बना गया था? या ये बच्चा किसी और का था, जिसे इस दुनिया ने त्याग दिया और इस पगली ने उसे अपना लिया?
मैंने पास खड़ी सब्ज़ी वाली से पूछा, “ये बच्चा… इसका है क्या?”
वो बोली, “कौन जाने दीदी! एक सुबह दिखा उसके साथ… कहते हैं किसी ने रात को मंदिर के पास छोड़ दिया था… और ये पगली उठा लाई।” मैं कुछ कह नहीं पाई।
बच्चा उसकी छाती से चिपका था, मानो जानता हो कि इस दुनिया में उसकी जगह बस यहीं है। और वह पगली—अब सिर पर धूल नहीं, ममता की छाँव ओढ़े थी। उसी पल मुझे एहसास हुआ—यह सिर्फ एक पगली नहीं थी। यह एक माँ थी। वह माँ जो खुद भूखी रह सकती है, लेकिन अपने बच्चे को कूड़े से ढूँढी रोटी खिला सकती है। वह माँ जिसे हम पागल कहते हैं, लेकिन जिसने इंसानियत का असली रूप बचा रखा है। मैंने समाज की ओर देखा—जहाँ लोग अब भी हँस रहे थे, ताने कस रहे थे। और फिर अपनी आँखों में भर आई नमी को छुपाते हुए आगे बढ़ गई।
रहस्य अब भी बना हुआ था। पर अब वह रहस्य उस औरत का नहीं, हम सबकी इंसानियत का था।
— डॉ. निशा नंदिनी भारतीय