ग़ज़ल
धरती न मिलेगी यहां अंबर न मिलेगा
अरसे के बाद फिर यही मंज़र न मिलेगा
मिल जाएंगे मिलने को बहुत से सयाने लोग
पर इस फ़कीर का तुम्हें फिर घर न मिलेगा
मचलेंगी बात करने को जब-तब ही उंगलियां
उस शख़्स का लेकिन तुम्हें नंबर न मिलेगा
रह जाएंगे उतर कर सब कवच औ कुंडल
चलने को साथ फिर कोई लश्कर न मिलेगा
तू क्रांति ही करता रहेगा घर में बैठ कर
इतिहास में तुमको कोई अवसर न मिलेगा
कलयुग में ही रहने को अभिशप्त होंगे हम
त्रेता न मिलेगा अब द्वापर न मिलेगा
— ओम निश्चल