गोबर का गीत
जहाँ पठन-पाठन की बात थी,
वहाँ चुप्पी की बारात थी।
कक्षा में ना विचार बचे,
बस ‘आदेशों’ की सौगात थी।
दीवारों पर नहीं चित्र थे,
ना ही कोई सृजन खड़ा था।
छात्रों का गुस्सा जल रहा,
और प्रिंसिपल घर बड़ा था।
नारे अब न काग़ज़ पे थे,
ना पोस्टर की भव्यता थी।
गोबर की गंध में घुली,
एक युग की मुखर व्यथा थी।
पावन कहो, या अपवित्र,
ये प्रश्न भी अब मौन हुए।
जब न्याय नहीं, संवाद नहीं,
तो प्रतिकार भी मौन हुए।
गाय के नाम पे सत्ता हँसी,
गाय के नाम पे गुस्सा भी।
जब शासन ने प्रतीक चुराए,
तब छात्रों ने रचा व्यंग्य कभी।
पंडित बोले — यह अशुद्ध है,
मीडिया चिल्लाया — ये अपराध!
पर किसी ने ना पूछा कारण,
किससे टूटी वह मर्यादा-वृत्त-रेखाग्राध।
अब शुद्धि क्या और पाप क्या है,
जब भाषा को मिटा दिया गया?
तो गोबर ही बना शास्त्र नया,
जब संवाद को लजा दिया गया।
बचा नहीं जब कोई मंच,
तो घर की चौखट तक आना था।
शिक्षा अगर मौन रहे सदा,
तो बदबू से उसे जगाना था।
सावधान हो ओ शिक्षा के स्वामी,
छात्र अब कलम से नहीं डरते।
अगर तुम विचारों को कैद रखोगे,
तो दीवारें भी गंध से लड़ते।
— डॉ. सत्यवान सौरभ