सब्र करते करते
सब्र करते करते कितने ही बरस बीत गए।
आज़ाद हैं हम ! गाए कितने ही गीत गए।
लहू देख अपनों का… संग गैर भी सहम गए;
हुआ कितनों के साथ यही हम फिर भी सह गए।
मानवता धर्म हमने सीखा संग सीखा प्रतिशोध है;
खुलकर कोई कुछ कहता न पर आंखों में रोष है।
ढेर लाशों का ढोती धरा अब तक क्यों ख़ामोश है;
नभ भी नीर न बहाए देख दृश्य किसका दोष है।
ईंट से ईंट बजानी है, संग बेकुसूर की जान बचानी है;
इंसान हैं विधर्मी नहीं, ये बात भी हमें समझानी है।
वतन से प्रेम …हमने बासुदेव कुटुंबकम् सीखा है;
धर्म, संस्कार के बल पर दुश्मन को भी जीता है।
घर आए दुश्मन को भी पानी पिलाना हम जानते हैं;
ज़ुल्म करना सहना दोनों पाप हैं ये भी हम मानते हैं।
जाओ मना लो जश्न आज तुम कायरता का खुलकर;
मिलेगा जवाब जल्दी ही रखना दिमाग में लिखकर।
— कामनी गुप्ता