ग़ज़ल
घर क्या छुटा दर-ब-दर हो गए
पराए क्या अपने भी दूर हो गए
गांव अब शहर होता चला गया
लोगों के भोलेपन छूटते चले गए
शहर की भीड़ में सब खोते गए
अपने अस्तित्व को खोते चले गए
शहर बनाने में पेड़ सब काटे गए
जहरीली हवा की साँस भरते गए
जीजिविषा के वास्ते सारा जग
कठिनाई सब सहते चले गए
दुख हो या सुख हो सहना ही है
मान यही लोग सब सहते गए
— मंजु लता