कविता

आ विराजो यहाँ!

आ विराजो यहाँ,
छोड़ करके जहान;
हृदय मेरे बसो,
छेड़ मर्मर ध्वनि!

है स्वचालित जगत,
माया विचरा रहा;
मोह वश बह रहा,
कुछ किए जा रहा!

दृष्टि तुमरी सभी,
सृष्टि घूमी रही;
देख पाते कोई,
लीला क्या हो रही!

तुम सनातन हो,
सत्ता सँभाले हुए;
शाख़ हर आँख रख,
कोपलें भर रहे!

पुष्प बन शिशु सिहर,
राग सिहरन में भर;
‘मधु’ की श्वाँसों सिमट,
देखो तुम हो कहाँ!

— गोपाल बघेल ‘मधु’

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