आस!
बड़ी मुश्किल से मां-बाबा ने अपना पेट काटकर सुनील को पढ़ा-लिखा कर अच्छी नौकरी के लिए तैयार किया. अपने देश में भी अच्छी नौकरी मिल रही थी, लेकिन उसे तो बस विदेश जाने की धुन चढ़ गई थी, सो मित्रों के पीछे-पीछे चल दिया. किसी से उनके अनुभव भी नहीं पूछे, न खुद को मन से तैयार किया.
“विदेश में अकेले रहना कितना मुश्किल होता है?” दिन भर तो काम की व्यस्तता में निकल जाता. बाजार का महंगा खाना खाने की हैसियत नहीं थी, किसी तरह सामान जुटाता, कच्चा-पक्का खाना बनाता, खाता, ऑफिस के लिए पैक करके रखता और सो जाता. मन तो उसका मां-बाबा के पास ही था, जिनकी छत्रछाया में उसे किसी चीज की कमी नहीं रही.
हर मुसीबत का खुद सामना करना, सुख के सब साथी, दुःख बांटने को कोई नहीं!
सब अपने में व्यस्त!
“कैसे बाबा साइकिल पर बिठाकर स्कूल छोड़ने जाते, मां स्कूल से उंगली पकड़कर वापिस ले आती. फिर मुझे स्कूटर-कार सब दिलाया. मां के हाथ का खाना, दादी-दादू का प्यार, सब पीछे छूट गया था. अब!”
अब क्या हो सकता था?
“ज्यादा काम करके वापिस जाने के पैसे जुटाऊंगा, तभी तो जा पाऊंगा!” उसने ठान लिया.
मां-बाबा की उदासी-कष्टों के बारे में सोचने की फुरसत नहीं थी, मन में ग़मों की घटा छाई हुई थी, मां-बाबा के साथ ग़म बांट नहीं सकता था, उसकी खुद की मोल ली हुई मुसीबत जो थी!
आ अब लौट चलें, की आस में दिन कट रहे थे अपने देश वापिस आने को!
— लीला तिवानी