क्या हो गया है इन औरतों को?
क्या हो गया है इन औरतों को?
अब ये आईना क्यों नहीं झुकातीं?
क्यों चलती हैं तेज़ हवा सी,
क्यों बातों में धार रखती हैं?
कल तक जो आंचल से डर को ढँकती थीं,
अब क्यों प्रश्नों की मशालें थामे हैं?
क्या हो गया है इन औरतों को —
जो रोटी से इंकलाब तक पहुंच गईं?
कोमल थीं, हाँ, थीं नर्म हथेलियाँ,
अब उनमें तलवार क्यों उग आई?
क्या प्रेम मर गया है इनकी धमनियों में,
या समाज की मार ने उसे लहूलुहान किया?
कर्नाटक की उस स्त्री को देखो —
जिसे अब हर चैनल पर नंगा किया गया,
अपराध की खबर कम थी,
उसके चेहरे की लिपस्टिक ज़्यादा दिखी।
कहां चूक हुई परवरिश में?
ये सवाल अक्सर औरतों के लिए होता है,
मगर जब बेटे खंजर बन जाते हैं,
तो माँ की ममता ही ढाल बना दी जाती है।
क्या स्त्री सिर्फ़ सहने को बनी है?
या वो भी ज़िन्दा प्राणी है —
जिसे मोह भी होता है,
और मोहभंग भी।
कोई नहीं पूछता कि क्यों टूटी वो?
किसने उसके सपनों को कुचला था?
क्यों उसका अंत अपराध में हुआ,
शायद वह भी कभी एक गीत थी…
इन औरतों को कुछ नहीं हुआ है,
ये बस अब मौन नहीं रहीं,
अब वे दोषी भी हैं, न्याय की भूखी भी,
अब वे देवी नहीं — मनुष्य बन रही हैं।
क्या हो गया है इन औरतों को?
कुछ नहीं…
बस उन्होंने ‘होना’ शुरू किया है।
— प्रियंका सौरभ