इतिहास

पंडित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ : भारत माता के अमर क्रांतिकारी सपूत”

पंडित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ का जन्म 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम मुरलीधर था जो एक ब्राह्मण परिवार से थे और आय का मुख्य साधन पूजा-पाठ और संस्कृत अध्यापन था। माता का नाम मूलमती था। बिस्मिल बचपन से ही तेजस्वी, जिज्ञासु और आत्मनिर्भर स्वभाव के थे। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अत्यंत सामान्य थी, फिर भी उनके माता-पिता ने उन्हें नैतिक मूल्यों और धार्मिक संस्कारों से परिपूर्ण किया। राम प्रसाद ने प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव और बाद में शाहजहाँपुर के आर्य समाज विद्यालय में प्राप्त की। उन्होंने संस्कृत, हिंदी और उर्दू भाषाओं में विशेष दक्षता प्राप्त की। बचपन में ही राम प्रसाद ने न केवल धार्मिक ग्रंथों में रुचि ली बल्कि राष्ट्रभक्ति और आत्मगौरव की भावना उनके भीतर गहराई से बस गई। जब वे किशोरावस्था में पहुँचे, तो देश की दुर्दशा देखकर उनके मन में ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध की भावना प्रबल होने लगी। यह भावना उस समय और तीव्र हुई जब उन्होंने देखा कि भारतीय जनता अंग्रेजों के शासन में दयनीय स्थिति में जीवन जी रही है। यही वह काल था जब उन्होंने ‘बिस्मिल’ उपनाम से कविताएँ और लेख लिखना आरंभ किया।

बिस्मिल की विचारधारा का निर्माण मुख्यतः आर्य समाज और स्वामी दयानंद सरस्वती के सिद्धांतों से हुआ। वे सत्यार्थ प्रकाश के नियमित पाठक थे और आर्य समाज के सुधारवादी विचारों को आत्मसात करते थे। उन्होंने आर्य समाज के मंच से सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक अंधविश्वासों और गुलामी के खिलाफ स्वर उठाना शुरू किया। आर्य समाज ने उनमें आत्मबल, राष्ट्रप्रेम और निर्भीकता का बीज बोया। यही वह संगठन था जिसने उन्हें राष्ट्र की मुक्ति के लिए क्रांति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। आर्य समाज के प्रभाव में रहकर उन्होंने न केवल धार्मिक स्तर पर पुनर्जागरण की दिशा में कार्य किया, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक चेतना भी जागृत की। बिस्मिल का मानना था कि भारत की स्वतंत्रता केवल सुधारवाद से नहीं आएगी, इसके लिए क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। इसी सोच ने उन्हें अनुशीलन समिति, फिर हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) जैसी क्रांतिकारी संस्थाओं की ओर खींचा। वे कविताओं, लेखों और पुस्तकों के माध्यम से जनता को जगाने लगे। उनके लेखों में क्रांति की गरिमा और स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष की प्रेरणा स्पष्ट झलकती है। उन्होंने “मेरी आत्मकथा”, “कैदियों की माताएं”, “स्वदेश प्रेम” जैसी रचनाएँ लिखीं जो आज भी क्रांतिकारी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।

सन 1924 में राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, योगेश चंद्र चटर्जी, शचीन्द्रनाथ सान्याल और अन्य साथियों के साथ मिलकर हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) की स्थापना करते हैं। इस संगठन का उद्देश्य ब्रिटिश शासन के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करके भारत को आज़ाद कराना था। इसका घोषणापत्र ‘द रिवोल्यूशनरी’ नाम से प्रकाशित हुआ जिसमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ पूर्ण असहयोग और हथियारों के प्रयोग की वकालत की गई थी। बिस्मिल न केवल इस संगठन के संस्थापक सदस्य थे, बल्कि इसके वैचारिक, रणनीतिक और साहित्यिक स्तंभ भी थे। उन्होंने संगठन के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने, नवयुवकों को प्रशिक्षित करने, गुप्त बैठकों का आयोजन करने और प्रचार साहित्य तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बिस्मिल का यह मानना था कि केवल अहिंसात्मक आंदोलन अंग्रेजों को देश छोड़ने को बाध्य नहीं करेगा, इसलिए उन्होंने हथियारबंद संघर्ष को आवश्यक बताया। HRA ने ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ और ‘वंदे मातरम्’ जैसे नारों के माध्यम से युवाओं को आकर्षित किया और जनजागरण फैलाया। इस संस्था ने देश के विभिन्न हिस्सों में अपने कार्यकर्ताओं को संगठित किया और योजनाबद्ध ढंग से सरकारी संस्थानों को निशाना बनाकर अंग्रेजी शासन को चुनौती दी।

9 अगस्त 1925 को घटित ‘काकोरी कांड’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक क्रांतिकारी मोड़ था। इस कांड का नेतृत्व पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने किया था। उद्देश्य था ट्रेन से ब्रिटिश सरकार के खजाने को लूटना ताकि संगठन के लिए धन एकत्र किया जा सके। यह घटना लखनऊ के पास काकोरी रेलवे स्टेशन पर घटित हुई जब क्रांतिकारियों ने चलती ट्रेन को रोककर सरकारी खजाना लूट लिया। इस मिशन में बिस्मिल के साथ अशफाक उल्ला खाँ, ठाकुर रोशन सिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी और अन्य कई युवा शामिल थे। यह कार्य अत्यंत साहसिक और सुनियोजित था। हालांकि इस घटना में किसी निर्दोष नागरिक को हानि नहीं पहुँचाई गई, फिर भी ब्रिटिश सरकार ने इसे एक गंभीर आपराधिक कृत्य मानते हुए व्यापक स्तर पर गिरफ्तारी और दमन अभियान चलाया। लगभग 40 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया। इनमें से 4 लोगों – बिस्मिल, अशफाक, लाहिड़ी और रोशन सिंह – को मृत्युदंड दिया गया। काकोरी कांड भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में यह स्पष्ट कर गया कि युवा पीढ़ी अब केवल याचना या अहिंसा तक सीमित नहीं रहना चाहती, वे सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भी देश को आजाद कराने के लिए तत्पर हैं। यह कांड आनेवाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना।

काकोरी कांड के बाद अंग्रेज सरकार ने बड़ी संख्या में क्रांतिकारियों को पकड़ना शुरू किया। राम प्रसाद बिस्मिल को शाहजहाँपुर से गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के बाद उनके विरुद्ध मुकदमा चलाया गया जो ऐतिहासिक रूप से ‘काकोरी षड्यंत्र केस’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस मुकदमे की सुनवाई विशेष न्यायालय में की गई और अंग्रेज सरकार ने अत्यंत कठोर दृष्टिकोण अपनाया। बिस्मिल ने न्यायालय में अपने वक्तव्य में देशभक्ति को अपराध नहीं माना बल्कि इसे अपना परम धर्म बताया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के अन्यायपूर्ण रवैये को खुलकर चुनौती दी। जेल में रहते हुए उन्होंने आत्मकथा लिखी जो आज भी स्वतंत्रता संग्राम का अमूल्य दस्तावेज मानी जाती है। जेल का जीवन उनके लिए केवल दंड नहीं बल्कि आत्मचिंतन और साहित्य-सृजन का अवसर भी बना। उन्होंने जेल में रहकर आध्यात्मिक और वैचारिक गहराई के साथ समाज और स्वतंत्रता के मुद्दों पर चिंतन किया। उनका आचरण और धैर्य जेल अधिकारियों को भी प्रभावित करता था। उनका संयम, समर्पण और आत्मबल आज भी आदर्श माने जाते हैं।

पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खाँ की मित्रता भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे प्रेरणादायक कहानियों में से एक है। एक हिन्दू और एक मुस्लिम, दोनों ने न केवल धर्म की सीमाओं को लांघा, बल्कि अपने लक्ष्य के लिए जीवन की आहुति भी दी। दोनों का रिश्ता केवल संगठनात्मक नहीं था, बल्कि आत्मीय और भावनात्मक स्तर पर भी अत्यंत गहरा था। बिस्मिल की विचारधारा में दृढ़ता और अशफाक की भावनात्मक प्रतिबद्धता ने दोनों को अभिन्न बना दिया। जब बिस्मिल को गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमा चला, तब अशफाक ने यह संकल्प लिया कि वे बिस्मिल को छुड़ाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देंगे। लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। बाद में अशफाक भी पकड़े गए और दोनों को एक ही मुकदमे में फाँसी की सजा सुनाई गई। मृत्यु से पूर्व अशफाक ने कहा, “मैं चाहता हूँ कि मेरी लाश को बिस्मिल की कब्र के बगल में दफनाया जाए।” बिस्मिल ने भी अपने एक लेख में लिखा कि “अगर मेरे दिल को चीरकर देखा जाए तो उसमें अशफाक के लिए भाईचारे और प्रेम की भावना ही निकलेगी।” उनकी मित्रता आज भी साम्प्रदायिक सौहार्द्र और एकता का प्रतीक मानी जाती है।

राम प्रसाद बिस्मिल न केवल एक क्रांतिकारी योद्धा थे, बल्कि एक संवेदनशील कवि, गद्यकार और चिंतक भी थे। उन्होंने ‘बिस्मिल’ उपनाम से हिंदी, उर्दू और ब्रजभाषा में देशभक्ति, बलिदान और स्वाभिमान से भरी अनेक कविताएँ लिखीं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता “सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है” आज भी स्वतंत्रता संग्राम की अमर प्रेरणा बनी हुई है। यह कविता मूलतः मौलाना शौकत अली द्वारा लिखी गई थी, जिसे बिस्मिल ने अपनी भावनाओं से आत्मसात कर लिया और वह जनमानस की क्रांति का स्वर बन गई। उनकी आत्मकथा ‘बिस्मिल की आत्मकथा’ क्रांतिकारी जीवन की सच्ची झलक प्रस्तुत करती है, जिसमें न केवल उनके संघर्ष और बलिदान की कहानी है, बल्कि सामाजिक विषमताओं, ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आलोचना और भारत के नव निर्माण की दिशा में गहन विचार भी समाहित हैं। उन्होंने कई पुस्तकों का अनुवाद भी किया जिनमें ‘कैदियों की माता’, ‘योग साधना’, ‘स्वदेश प्रेम’ जैसी कृतियाँ शामिल हैं। उनकी लेखनी में गहराई, प्रभावशीलता और राष्ट्रीय भावना का अद्भुत मेल देखने को मिलता है। उनका साहित्य आज भी युवाओं को नयी ऊर्जा देता है और देशभक्ति की प्रेरणा देता है।

पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में फाँसी दी गई। उनके बलिदान का समाचार जैसे ही देशभर में फैला, हर ओर शोक की लहर दौड़ गई। उन्होंने फाँसी से पूर्व अपनी माँ से अंतिम बार मिलने की इच्छा जताई थी और जब उनकी माँ उनसे मिलीं तो उन्होंने बेटे के त्याग पर गर्व जताया। माँ ने कहा – “मुझे तुम पर गर्व है बेटा, देश के लिए मरते हुए जा रहे हो।” बिस्मिल ने फाँसी के तख्ते पर चढ़ते समय भी ‘वन्दे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाए और यह दिखा दिया कि एक सच्चा क्रांतिकारी मृत्यु से भयभीत नहीं होता। उनकी शहादत ने संपूर्ण भारतवर्ष को झकझोर दिया। उनके अंतिम शब्द थे – “मैं अंग्रेजी सरकार की अदालत के निर्णय को नहीं मानता। मेरे खून का एक-एक कतरा देश की आज़ादी की बुनियाद मजबूत करेगा।” उनका बलिदान केवल एक व्यक्ति का नहीं था, बल्कि पूरे स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक बन गया। 19 दिसंबर को आज भी भारत में ‘शहीद दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। उनकी शहादत ने भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे युवाओं को आगे क्रांति की राह पर चलने को प्रेरित किया।

पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की फाँसी केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं थी, बल्कि यह पूरे भारतीय समाज के लिए चेतना का एक प्रबल झटका थी। जब बिस्मिल, अशफाक, लाहिड़ी और रोशन सिंह को मृत्युदंड दिया गया, तब संपूर्ण राष्ट्र में शोक, क्रोध और प्रेरणा की त्रिविध अनुभूति देखी गई। भारत के कोने-कोने में उनके बलिदान की गाथाएँ सुनाई जाने लगीं। स्कूलों, कॉलेजों और नगरसभाओं में उनके नाम पर सभाएँ हुईं। यह वह समय था जब गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चल रहा था और क्रांतिकारी मार्ग को लेकर कुछ मतभेद थे। फिर भी, बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों की शहादत ने गांधीवाद के आलोचकों को भी यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि देश में युवाओं की बेचैनी किस स्तर पर पहुँच चुकी है। उन्होंने बताया कि स्वतंत्रता केवल विचारों से नहीं, बल्कि प्राणों के उत्सर्ग से प्राप्त होती है। बिस्मिल के बलिदान ने युवाओं के मन में यह दृढ़ विश्वास उत्पन्न किया कि जब तक प्राण हैं, तब तक अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष चलता रहेगा। उनकी कविता “सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है” हर आंदोलन का घोष बन गई और उनकी स्मृति में अनेक स्मारक, स्कूल, पुस्तकालय और सड़कें देशभर में स्थापित की गईं।

बिस्मिल के जीवन और व्यक्तित्व ने समकालीन क्रांतिकारियों पर गहरा प्रभाव डाला। चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों ने बिस्मिल को अपना प्रेरणा स्रोत माना। भगत सिंह ने विशेष रूप से अपनी डायरी में बिस्मिल और अशफाक की मित्रता और बलिदान की चर्चा की है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपने वक्तव्यों में यह कहा था कि यदि भारत को ऐसे क्रांतिकारी युवा और मिलते, तो शायद आजादी जल्दी प्राप्त हो जाती। खुदीराम बोस, बिनय-बादल-दिनेश, सूर्य सेन जैसे बंगाल के क्रांतिकारियों ने भी बिस्मिल के कार्यों को अपनी रणनीतियों में मार्गदर्शक रूप में स्वीकारा। बिस्मिल की संगठन क्षमता, वैचारिक स्पष्टता और समर्पणशीलता ने क्रांति को एक दिशा दी। वे केवल हथियार उठाने वाले युवा नहीं थे, बल्कि वैचारिक नेता भी थे। उनके लेखन और काव्य ने युवाओं के हृदय को आंदोलित किया और क्रांति को जनांदोलन बनाया। इसी कारण वे आज भी केवल एक स्वतंत्रता सेनानी नहीं, बल्कि भारत के क्रांतिकारी विचारधारा के आदर्श पुरुष के रूप में माने जाते हैं।

राम प्रसाद बिस्मिल का साहित्य आज भी प्रेरणा का स्रोत है। उनकी कविताओं में एक ओर जहाँ वीर रस और देशभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है, वहीं दूसरी ओर गहरी आत्मचिंतनशीलता और आदर्शवाद भी दिखाई देता है। उनकी आत्मकथा ‘बिस्मिल की आत्मकथा’ जेल में लिखी गई थी, जिसे पढ़कर आज भी युवा आंदोलित हो उठते हैं। उन्होंने ‘स्वदेश प्रेम’, ‘कैदियों की माता’, ‘योग साधना’, ‘क्रांति गीतांजलि’ जैसी रचनाएँ लिखीं या अनूदित कीं, जिनमें विचार और भावनाओं का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। उनका लेखन केवल शब्दों का संकलन नहीं था, बल्कि वह एक विचारधारा का निर्माण था। उनकी कविताओं ने जनजागरण का कार्य किया और लोक चेतना को जाग्रत किया। बिस्मिल ने यह सिद्ध कर दिया कि एक क्रांतिकारी केवल शस्त्रधारी नहीं होता, वह एक कलाधर्मी भी होता है, जिसकी कलम भी तलवार से अधिक प्रखर होती है। उनकी लेखनी में भावनात्मक उर्जा, सामाजिक विषमता के प्रति विरोध और देशभक्ति की आग स्पष्ट झलकती है।

आज जब भारत स्वतंत्र है, तब बिस्मिल जैसे वीरों की शहादत को केवल इतिहास के पन्नों तक सीमित रखना अनुचित होगा। उनकी जीवन-गाथा आज की युवा पीढ़ी को न केवल प्रेरणा देती है, बल्कि यह भी सिखाती है कि सच्चा राष्ट्रप्रेम क्या होता है। बिस्मिल की विरासत हमें यह सिखाती है कि स्वार्थ से ऊपर उठकर, समाज और देश के लिए जीना और मरना ही सच्चा आदर्श है। आज जब समाज में वैचारिक भ्रम, नैतिक पतन और व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना बढ़ रही है, तब बिस्मिल का जीवन हमें आत्मावलोकन का अवसर प्रदान करता है। उनकी बहादुरी, नेतृत्व क्षमता, साहित्यिक संवेदना और त्यागमयी सोच आज के विद्यार्थियों, युवाओं और नेताओं के लिए आदर्श का प्रतीक बन सकती है। बिस्मिल की विचारधारा आज भी प्रासंगिक है—विशेषकर जब राष्ट्र की अखंडता, सांस्कृतिक एकता और स्वतंत्रता की भावना को पुनः जाग्रत करने की आवश्यकता है। हमें चाहिए कि उनके योगदान को शैक्षिक पाठ्यक्रमों, सांस्कृतिक आयोजनों और सार्वजनिक जीवन में सम्मानपूर्वक स्थान दें, जिससे आनेवाली पीढ़ियाँ अपने गौरवशाली अतीत से प्रेरणा लेकर देश के लिए कार्य करें।

पंडित राम प्रसाद बिस्मिल केवल एक क्रांतिकारी योद्धा नहीं थे, बल्कि वे राष्ट्र की आत्मा के प्रतीक थे। उन्होंने धर्म, जाति और भाषा की सीमाओं को पार कर एक भारत, श्रेष्ठ भारत की कल्पना की और उसी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता केवल राजनीतिक मुक्ति नहीं थी, बल्कि सामाजिक और नैतिक पुनर्जागरण का मार्ग भी थी। वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समर्पण, ईमानदारी और विचारशीलता के हिमायती थे। आज जब हम स्वतंत्रता के अमृतकाल में प्रवेश कर रहे हैं, तब हमें बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों की यादों को केवल स्मारकों तक सीमित न रखते हुए उन्हें अपने जीवन मूल्यों में आत्मसात करना चाहिए। वे आज भी जीवित हैं – हमारी सोच में, हमारे कर्तव्यों में और राष्ट्र की भावना में। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल का बलिदान भारत की माटी की वह गाथा है जो आनेवाली पीढ़ियों को स्वाभिमान, संघर्ष और समर्पण की शिक्षा देती रहेगी।

डॉ. शैलेश शुक्ला

डॉ. शैलेश शुक्ला

राजभाषा अधिकारी एनएमडीसी [भारत सरकार का एक उपक्रम] प्रशासनिक कार्यालय, डीआईओएम, दोणीमलै टाउनशिप जिला बेल्लारी - 583118 मो.-8759411563

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