पुरुष हो तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है
हर रोज़ घर से कमाने निकलना है
आग के दरिया से मुझको गुज़रना है
तमन्नाओं को अपनी खुद ही कुचलना है
जीने की चाहत में घुट घुट के मरना है
मुझे कहीं रुकने की फुर्सत नहीं है
मगर जो भी मिलता है कहता यही है
पुरुष हो तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है
तारीख में ज़ालिम दिखाया गया हूं
हवस का पुजारी बताया गया हूं
कई सूलियों पर चढ़ाया गया हूं
मैं कितना ज़्यादा सताया गया हूं
ये कहने की मुझको इजाज़त नहीं है
मगर जो भी मिलता है कहता यही है
पुरुष हो तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है
थक गया हूं बोझ उठाते उठाते
गम अपने सब से छुपाते छुपाते
अकेले में आंसू बहाते बहाते
जिम्मेदारियों को निभाते निभाते
और सह सकने की हिम्मत नहीं है
मगर जो भी मिलता है कहता यही है
पुरुष हो तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है
— भरत मल्होत्रा