इंसान का अंदर ही अंदर टूटना और खामोशी — एक तफ़सीली तसव्वुर
इंसान जब अपनों के रवैयों से टूटता है, तो उसका दर्द लफ़्ज़ों में बयां करना आसान नहीं होता। अपनों से जो उम्मीदें होती हैं, जब वही उम्मीदें चकनाचूर हो जाती हैं, तो दिल की दुनिया वीरान हो जाती है।
इस टूटन का असर सबसे पहले इंसान की रूह पर पड़ता है। वो शख़्स जो कभी हँसता-खिलखिलाता था, अब ख़ामोशी की चादर ओढ़ लेता है। उसकी आँखों में एक अजीब सी उदासी बस जाती है, और उसके लबों पर चुप्पी का ताला लग जाता है।
अपनों का दिया हुआ दर्द सबसे ज़्यादा गहरा और ला-दवा होता है। गै़रों के ज़ख्म तो वक्त के साथ भर जाते हैं, मगर अपनों के दिए ज़ख्म उम्र भर रिसते रहते हैं।
इंसान बार-बार सोचता है, “आख़िर क्यों?”
उसके सवालों का कोई जवाब नहीं मिलता, और वो अपने ही दिल के अंदर घुटता रहता है।
वो दुनिया से कटने लगता है, महफ़िलों से दूर भागने लगता है, और तन्हाई उसकी सबसे बड़ी हमराज़ बन जाती है।
ख़ामोशी — दर्द की ज़ुबान बन जाती है
जब दर्द हद से बढ़ जाता है, तो इंसान बोलना छोड़ देता है। उसकी ख़ामोशी बहुत कुछ कहती है।
वो ख़ामोशी जिसमें चीखें भी दबी होती हैं,
वो ख़ामोशी जिसमें उम्मीदों की लाशें दबी होती हैं।
लोग समझते हैं कि वो शख़्स ख़ुश है, मगर हक़ीक़त में वो अंदर से टूट चुका होता है।
ऐसे हालात में इंसान एक ‘ज़िंदा लाश’ बन जाता है।
वो चलता-फिरता है, मगर उसकी रूह मर चुकी होती है।
उसे न कोई ख़ुशी छूती है, न कोई ग़म असर करता है।
वो बस जी रहा होता है, मगर असल में उसकी ज़िंदगी में कोई रंग बाकी नहीं रहता।
“अपनों की बेरुख़ी ने इस क़दर तोड़ दिया,
अब दिल में बस ख़ामोशी का आलम रहता है।
मुस्कराहटें भी अब तो अजनबी सी लगती हैं,
हर ख़ुशी से जैसे कोई गिला-शिकवा रहता है।”
इंसान की फ़ितरत में मोहब्बत, उम्मीद और अपनापन रचा-बसा होता है। जब यही अपनापन, जिनसे सबसे ज़्यादा उम्मीदें होती हैं, वही लोग अपने रवैयों से दिल तोड़ देते हैं, तो इंसान की रूह तक ज़ख्मी हो जाती है।
ये टूटन कोई आम दर्द नहीं, बल्कि वो कैफि़यत है जो इंसान को अंदर से खोख़ला कर देती है।
जिस शख़्स की आँखों में कभी चमक थी, अब वहाँ वीरानी का साया है।
जिसके लबों पर कभी मुस्कान थी, अब वहाँ ख़ामोशी का डेरा है।
अपनों की बेरुख़ी इंसान को ऐसी गहराइयों में धकेल देती है, जहाँ से लौटना आसान नहीं होता।
वो हर रोज़ अपने जज़्बातों से लड़ता है,
हर रात तन्हाई में अपने आंसुओं से बातें करता है। नींद से उसका रिश्ता ख़त्म सा लगता है, और तारे गिनना हर किसी के बस की बात नहीं होती है।
कभी-कभी तो ऐसा महसूस होता है जैसे उसकी मौजूदगी किसी को महसूस ही नहीं होती।
वो अपने ही घर में अजनबी सा महसूस करता है।
ख़ामोशी, दर्द की सबसे मुख़्तसर ज़ुबान बन जाती है।
जब इंसान के पास कोई नहीं रहता,
तो वो अपनी ख़ामोशी से दोस्ती कर लेता है।
उसकी ख़ामोशी में सदियों का दर्द छुपा होता है।
वो बोलता नहीं, मगर उसकी आँखें चीख-चीख कर सब कह देती हैं।
लोग उसकी मुस्कान को देख कर धोखा खा जाते हैं,
मगर उसकी रूह की तन्हाई कोई नहीं समझ पाता।
इंसान बार-बार सोचता है कि,
क्या उसकी ख़ता सिर्फ़ इतनी थी कि उसने अपनों से मोहब्बत की?
क्या उसकी ग़लती ये थी कि उसने किसी से उम्मीदें रखीं?
इन सवालों के जवाब उसे कभी नहीं मिलते,
और वो अपने ही सवालों में उलझा रह जाता है।
उर्दू में एक नज़्म।
“टूट कर भी मुस्कुराना, ये हुनर किसे आता है,
अपनों की बेरुख़ी में भी वफ़ा निभाना किसे आता है।
हर लम्हा दिल के अंदर इक सदा सी उठती है,
मगर ख़ामोशी में दर्द छुपाना किसे आता है।
ज़िंदा लाश बन कर जीना, ये भी एक फ़न है,
वरना टूटे दिल को संभालना किसे आता है।”
— डॉ. मुश्ताक अहमद शाह