ग़ज़ल : सिलसिला
हर सुबह रंगीन अपनी शाम हर मदहोश है
वक़्त की रंगीनियों का चल रहा है सिलसिला
चार पल की जिंदगी में, मिल गयी सदियों की दौलत
जब मिल गयी नजरें हमारी, दिल से दिल अपना मिला
नाज अपनी जिंदगी पर, क्यों न हो हमको भला
कई मुद्द्दतों के बाद फिर अरमानों का पत्ता हिला
इश्क क्या है, आज इसकी लग गयी हमको खबर
रफ्ता रफ्ता ढह गया, तन्हाई का अपना किला
वक़्त भी कुछ इस तरह से आज अपने साथ है
चाँद सूरज फूल में बस यार का चेहरा मिला
दर्द मिलने पर शिकायत, क्यों भला करते मदन
जब दर्द को देखा तो दिल में मुस्कराते ही मिला
— मदन मोहन सक्सेना
बहुत अच्छी ग़ज़ल !
आप सभी तहेदिल से शुक्रिया मेरी इस रचना को अपना समय देने के लिए एवं अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देने के लिए … स्नेह युहीं बनायें रखें … सादर !
अच्छी ग़ज़ल.
आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया मेरी इस रचना को अपना समय देने के लिए एवं अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देने के लिए … स्नेह युहीं बनायें रखें … सादर !