बाल कविता : बिल्ली मौसी को अप्रैल-फूल बनाया
एक थी
छोटी सी चिड़िया ,
उड़ती रहती
गाँव और शहर की गलियाँ।
एक दिन
देखे उसने
बिखरे दाने बहुत से
दाने चुगने की धुन में
ना देखा उसने
गिरे हैं वो कीचड़ में ,
खाने के लालच में
पैर भी धँसवाये
पर भी लिए भिगो ,
नन्ही सी चिड़िया
घबराई अब तो
जब देखा सामने
आ रही है बिल्ली मौसी !
बिल्ली मौसी भी हर्षाई
मुख पर जीभ लपलपाई
सोचा ,
“अहा ! आज तो दावत
बिन मेहनत ही पाई !”
चिड़िया थी तो नन्ही
समझदार भी थी बहुत
बोली मौसी ,
मुझे जरा बाहर निकालो
नहला दो जरा ,
कीचड़ तुम्हारे मुहं में तो
ना जायेगा !
बिल्ली मौसी ,
अभी तो गीली हूँ मैं !
पानी से भरी
तुमको ना भा सकूंगी
जरा सूखने तो दो !
मूर्ख बिल्ली
बैठी इस आस में
चिड़िया सूखेगी
तब खा जाऊँगी उसे
सूख गए पर चिड़िया के …
फड़फड़ाये उसने अपने पर
जा बैठी ऊँची डाली पर
चहकने लगी हो जैसे
बिल्ली मौसी को अप्रैल -फूल बनाया।
अच्छी बाल कविता, हालांकि यह एक लोक कथा पर आधारित है.