ग़ज़ल
हमारे दिल में वो कब आ बसे, पता न चला,
हम उनके प्यार में कब खो चले, पता न चला ।
हाँ, उनको देख के उठती थी इक लहर दिल में,
हम उनकी वस्ल के तालिब भी थे, पता न चला ।
कुछ इस तरह से रहे ग़म में मुब्तिला उनके,
कब अपनी आँखों से आँसू गिरे, पता न चला ।
हम इंतजार में उनके बिता चले इक उम्र,
वो, जैसे चाँद, कब आये गये, पता न चला ।
शहर में आते हैं अक्सर वो, कह रहा था रक़ीब,
किसे ख़बर थी बराबर, किसे पता न चला ।
ऐ ‘होश’ अपनी सुनाओ कहाँ रहे अब तक,
कि, कैसे हाल थे, अच्छे – बुरे ! पता न चला ।
वाह पाण्डेय साहब बहुत खुब कहा है आपने। शानदार गज़ल है।
हाँ, उनको देख के उठती थी इक लहर दिल में,
हम उनकी वस्ल के तालिब भी थे, पता न चला ।
ये पक्तियाँ शानदार हैं। आपको बधाई
आपको अच्छी लगी, हमारा प्रयास फल हुआ। धन्यवाद ।
वाह वाह ! बहुत खूब !!
आप को तो मै पहले ही बड़ा वाला दे चुका हूँ , धन्यवाद ।