उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 58)
53. सम्राट और साम्राज्ञी
अंततः देवलदेवी और धर्मदेव के अतुलनीय बलिदानों एवं शौर्यकार्यों से विधाता देव रीझ उठे और पंद्रह अप्रैल, सन तेरह सौ बीस की शुभ घड़ी में सम्राट नसिरूद्दीन (धर्मरक्षक/धर्मदेव) खुशरवशाह और सम्राज्ञी देवलदेवी दिल्ली के सिंहासन पर बैठे। महान राजा पृथ्वीराज चैहान के बाद ऐसी वीर संतानों को पाकर दिल्ली भी अपने भाग्य पर धन्य-धन्य कह उठी।
रत्नजटित सिंहासन पर सम्राट धर्मदेव का राज्याभिषेक हुआ। इस मंगल बेला में उनकी मनोहारी छवि देखते ही बनती थी। सिंहासन के निकट ही हल्के झीने पर्दे के पीछे बैठी थी सम्राज्ञी देवलदेवी, वह देवलदेवी जिसने स्वधर्म स्थापना के प्रज्जवलित यज्ञ में नित्य अपने बलिदानों की आहुति डाली थीं। उस समय उनका उज्जवल मुख सीता, पांचाली और यशोधरा के मुखों की तरह चमक रहा था। एक असीम संतुष्टि और आत्म-गौरव उनके मुख से परिलक्षित हो रहा था।
सम्राट धर्मदेव के दाहिने तरफ बैठे थे उनके अनुज हिमासुद्दीन और बायीं ओर उनके प्रमुख समयोगी जहीरा और मामा खडोल। सम्राट के सम्मुख राजसभा के दोनों ओर सिर झुकाए वहिउद्दीन कुरैशी, आईन-उल-मुल्क मुल्तानी, आलम खाँ और फखरूद्दीन जूना जैसे कई मुस्लिम अमीर बैठे थे।
इन बड़े-बड़े तुर्क अमीरों को संबोधित करके सम्राट धर्मदेव ओजपूर्ण वाणी में बोले, ”आज तक मुझे केवल बलात्कार से मुसलमानों का सा धर्मभ्रष्ट जीवन जीने के लिए बाध्य होना पड़ा। फिर भी मूलतः मैं हिंदू का पुत्र हूँ, मेरा बीज हिंदू बीज और मेरा रक्त हिंदू रक्त है। अतः चूँकि आज मुझे ‘सुल्तान’ का समर्थ और स्वतंत्र जीवन प्राप्त है, इसलिए मैं अपने पैरों की धर्मभ्रष्टता की बेड़ी तोड़ता हुआ घोषित करता हूँ कि मैं हिंदू हूँ। अब प्रकट में इस विशाल एवं अखंड भारतखंड के हिंदू-सम्राट के नाते इस सिंहासन पर आरूढ़ हुआ हूँ।
”इसी प्रकार कल तक ‘सुल्ताना’ कहलाने वाली देवलदेवी जो मूलतः एक हिंदू राजकन्या हैं, जिसे अपने पिता और देवगिरी के युवराज अपने पति के साथ जंगल-जंगल भटकते हुए पिता और पति से छीना गया और दिल्ली में लाकर अलाउद्दीन के हरम में भ्रष्ट खिज्र खाँ की बेगम बनाकर जिसकी घोर विडंबना की गई और अभी कुछ दिन पूर्व हुई राज्यक्रांति में मारे गए मुबारक ने अपने भाई को मरवाकर जिसके साथ जबरन निकाह किया और धर्मपरिवर्तित करके ‘सुल्ताना’ बनाया और आज की मेरी साम्राज्ञी देवलदेवी जन्म से, बीज से और रक्त से मूल
हिंदू राजवंश की हैं, इसलिए वह भी अपनी धर्मांतरित इस्लामियत को धिक्कारती हैं, अब से वह हिंदू की तरह ही जीवन बिताएँगी।“
इतना कहकर सम्राट धर्मदेव रूके, उसी समय पर्दे के पीछे से साम्राज्ञी देवलदेवी ओजस्वी वाणी में बोली, ”हम दोनों की यह प्रतिज्ञा हमारे बलात्कार जनित अतीत धर्मभ्रष्टता के पाप का परिमार्जन है।“
सम्राट और साम्राज्ञी की इस घोषणा का किसी ने प्रतिवाद नहीं किया और राजसभा सम्राट धर्मदेव और सम्राज्ञी देवलदेवी की जय से गूँज उठा।
योजनाबद्ध कार्य का अच्छा परिणाम !