ग़ज़ल – ये कैसा तंत्र
कैसी सोच अपनी है किधर हम जा रहे यारो
गर कोई देखना चाहे वतन मेरे वह आ जाये
तिजोरी में भरा धन है मुरझाया सा बचपन है
ग़रीबी भुखमरी में क्यों जीवन बीतता जाये
ना करने का ही ज़ज्बा है ना बातों में ही दम दिखता
हर एक दल में सत्ता की जुगलबंदी नजर आये
कभी बाटाँ धर्म ने है कभी जाति में खोते हम
हमारे रहनुमाओं का असर हम पर नजर आये
ना खाने को ना पीने को ,ना दो पल चैन जीने को
ये कैसा तंत्र है यारो, ये जल्दी से गुजर जाये
— मदन मोहन सक्सेना
अच्छी ग़ज़ल !