इंग्लैंड का मौसम इतना अच्छा नहीं है। मुश्किल से चार महीने गर्मिओं के दिन होते हैं और उस में भी सूर्य देवता के दर्शन मुश्किल से होते हैं। आज जब सुबह उठा तो खिड़की से सूर्य की लौ आई। मन पर्सन हो गिया। ब्रेक फ़ास्ट ले के अपनी छोटी सी बगिया में बैंच पर बैठ गिया और फूलों का नज़ारा देखने लगा। पत्नी भी आ गई और नए नए फूलों को निहारने लगी। कुछ देर बाद अचानक उस ने एक अजीब कोई दो इंच बड़ा परों वाला कीड़ा देखा और जल्दी से मेरे पास आई और बोली , देखो देखो , ऐसा कीड़ा कभी नहीं देखा , यह कहाँ से आ गिया ? मैंने भी देखा। यह कोई दो इंच लम्बा , बड़ी बड़ी टांगें और बड़े बड़े पर (wing ) थे। मैं भी हैरान हो गिया कि यह कहाँ से आ गिया ?. सोचता सोचता मैं बचपन में चले गिया। पिछली कुछ किश्तों में मैंने गेंहूँ की बिजाई कटाई के बारे में लिखा था। और जो बात मैं अब लिखने जा रहा हूँ यह शायद इस से एक दो साल पहले की होगी।
एक दिन कुछ सत्रीआं हमारे घर में आईं और मेरी माँ से बोलीं ,” तेज कौरे ! ( मेरी माँ का नाम तेज कौर था) सुना है सिला बहुत आ रही है। खेतों के खेत खा रही है, सुना है एक औरत का बच्चा था जब वोह सिला को खेतों से उड़ा रही थी तो बच्चा कही खेत के बाहिर बिठा दिया था और सिला ने वोह बच्चा ही खा लिया। यह सिला किया बला है, मैं मन ही मन में सोचने लगा। फिर मेरे दादा जी भी आ गए और जो उन्होंने लोगों से सुना वोह बताने लगे कि सिला पाकिस्तान की ओर से आ रही थी और अब अमृतसर के नज़दीक आ गई थी। मन ही मन में मैं सोचता रहा कि सिला कैसी होगी। इस घटना से दो तीन दिन बाद की बात होगी। मैं राम सर वाले खेतों में साग तोड़ रहा था कि मुझे ढोल बजने की आवाज़ सुनाई दी लेकिन मुझे कहीं भी ढोल वाला दिखाई नहीं दिया, शायद दूर कहीं बज रहा था। फिर कुछ लोगों का शोर भी सुनाई देने लगा। मैंने आकाश की ओर देखा। दूर ऐसे लग रहा था जैसे काले बादल आ रहे हों। मुझे हैरानी हुई कि हमारी तरफ आसमान बिलकुल साफ़ था।
अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ होगा कि आसमान से बड़ी बड़ी टांगों और परों वाले कीड़े ज़मीं पर गिरने लगे और हरी हरी गेंहूँ सेंजी और चौटाले को खाने लगे जो हम पशुओं को खिलाते थे। कुछ ही मिनटों में वोह काले बादल जो दूर से दिखाई देते थे अब हमारे खेतों पर छाए हुए थे। मेरे दादा जी अचानक कहीं से आ गए और घबराए हुए मुझे बोले , जल्दी जल्दी यह पीपा पकड़ और इसे डंडे के साथ जोर जोर से बजा कर सिला को उड़ा , नहीं तो सारी गेंहूँ खा लेंगे। मैं और दादा जी जोर जोर से पीपे के ऊपर डंडे मार मार कर खटाक करते और सिला को उड़ाने की नाकाम कोशिश करते। सभी किसान अपने अपने खेतों से सिला उड़ा रहे थे। सिला की गिनती नहीं की जा सकती थी , यह अरबों खरबों से भी ज़्यादा तादाद में होगी। दूसरे दिन सुबह से ही यह काम फिर शुरू हो गिया। पता नहीं कहाँ से आ रही थी और खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी। आई ही जा रही थी और जाइ जा रही थी। स्कूलों में छुटियाँ हो गई थीं और सभी बच्चे अपने अपने खेतों से सिला को उड़ा रहे थे। सिला ऊपर से आती और खेतों में गिरती जाती और हरी हरी पतीआं खाने लगती क्योंकि इन की खुराक ही हरा था। सभी दरख्त सिला से भरे हुए थे। कुछ दिन बाद मिलिटरी के कुछ ट्रक्क आये और ढोल से सारे गाँव के लोगों को हदायत दी कि अपने अपने घरों से झाड़ू ले कर आएं।
मैं भी झाड़ू ले कर गिया। मिलिटरी के ट्रक मट्टी के तेल के पीपों से भरे हुए थे। मिलिटरी के जवान ट्रक से पीपा उतारते, उस में एक लम्बी ट्यूब का एक सिरा डाल देते और दूसरा सिरा एक बड़ी सी पिचकारी को लगा था । पम्प के प्रेशर से मट्टी का तेल पिचकारी से निकलने लगता और फिर दिया सिलाई से पिचकारी के आगे आग लगा देते और एक आग का फ्लेम निकलने लगता । फिर वोह जवान आग का फ्लेम दरख्त के चारों ओर घुमाते। यह फलेम इतना ऊंचा जाता था कि दरख़्त के ऊपर तक जाता था। सिला के कीड़े झुलस कर नीचे गिरते जाते और हम को कहा गिया था कि उन सिला के कीड़ों को अपने अपने झाड़ूओं से मारें। एक दरख्त के बाद दूसरे दरख्त की तरफ चले जाते , फिर तीसरे दरख्त की ओर । बहुत रात तक यह काम, चलता रहा। यह काम रोज़ का ही हो गिया। दिन को खेतों से सिला उड़ाने की कोशिश करते और रात को मिलिटरी के साथ मिल कर सिला को मारते। सात आठ दिन तक सिला ऐसे ही आती रही और फिर अचानक आनी बंद हो गई। अब और मुसीबत हो गई। सिला ने अंडे दे दिए थे जिन में से और बच्चे पैदा होने का अंदेशा था। यह अंडे इतने थे कि हकूमत ने लोगों को कह दिया कि अण्डों को मट्टी से उखाड़ कर लाओ और चार आने सेर खरीदने का लालच दे दिया। सारे गाँव के लोग मट्टी से अंडे उखाड़ उखाड़ कर मेरे दोस्त बहादर की हवेली में लाने लगे। तकड़ी से तोल तोल कर लोगों को कैश पैसे मिलने लगे। रोज़ रोज़ लोग अंडे लाते और पैसे बनाते। एक बहुत बड़ा ढेर अण्डों का लग गिया था। फिर मिलिटरी का ट्रक आया , कुछ लोगों ने टोकरे भर भर के ट्रक को इन अंडों से भर दिया और ट्रक ड्राइवर उन अण्डों को कहाँ ले गिया, मुझे नहीं मालूम लेकिन सुना था कि उन अंडों को एक जगह इकठे करके आग लगाईं जायेगी। एक बात यह भी बता दूँ कि यह अंडे चावलों जैसे थे और गुछों में थे। एक एक गुच्छे में कम से कम सौ अंडे तो होंगे ही। इस से अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि उन में से बच्चे जब निकलते तो कितने होंगे।
इस सिला ने सारी फसलें खा ली थीं और सभी किसान दुखी थे , मैं तो अभी बच्चा ही था , उन लोगों के दुःख समझने में असमर्थ था लेकिन इतना तो दिखाई दे ही रहा था कि यह सिला फसलें खा खा कर अंडे दिए जा रही थी। हमारी सरकार ने किसानों के लिए बहुत कुछ किया। कितने पीपे तेल के लगे होंगे और कितने के लोगों से अंडे खरीदे होंगे क्योंकि यह हमारे गाँव में ही नहीं था बल्कि सारे पंजाब में था। अब कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। सारे अंडे तो उखाड़े नहीं जा सकते थे , कुछ लोगों ने भी लालच के कारण वहीँ से अंडे उखाड़े यहां आसानी से और ज़्यादा तादाद में उखाड़े जा सकते थे क्योंकि मकसद पैसे बनाने का था। जिस ज़मीन में रेता था उस में अंडे बहुत होते थे और सभी लोग ज़्यादा से ज़यादा उधर ही जाते थे। कुछ भी हो , कुछ ही दिनों बाद जो बचे अंडे रह गए थे उन में से बच्चे निकलने शुरू हो गए। यह नई मुसीबत शुरू हो गई। अब हकूमत की ओर से स्प्रे करने वाली मछीनें आ गईं और साथ ही डीडीटी के बैग आ गए। सारे गाँव में लोग जगह जगह अपने अपने बेलचे ले कर गए हुए थे। पहले कुछ लोग बेलचों से एक लाइन में माटी को उखाड़ देते और फिर दूसरे लोग कुछ कपडे ले कर अंडों से निकले बच्चों को कपड़ों से हवा दे दे कर उस खाई की और लेते जाते। जब वोह बच्चे खाई में गिर जाते तो दूसरे लोग जल्दी जल्दी उन बच्चों के ऊपर मट्टी डाल कर उन को दबा देते। स्प्रे करने वाले भी दूर दूर तक डीडीटी को सप्रे करते जाते। यह सिलसिला भी बहुत देर तक ऐसे ही चलता रहा। धीरे धीरे बहुत बच्चे मार दिए गए या दबा दिए गये. इस के बाद भगवान का शुक्र ही मनाएंगे कि या तो मौसम बदलने की वजह से या किसी और कारण के यह सब सिला अपने आप ही ख़त्म हो गई. लोगों ने सुख की सांस ली और भगवान का शुक्र इस लिए भी मनाना बनता था की जो फसलें सिला ने खा लीं थी फिर से हरी होने लगीं। चटाला सेंजी तो बहुत जल्दी अपने जलाल पर आ गईं। गेंहूँ भी ऊपर को उठने लगी। किसानों के मुरझाये चेहरे एक दफा फिर खिल उठे।
अब यह अंधविश्वास कहें या मन की तसल्ली ,हमारे मोहल्ले के लोगों ने सिला के नुक्सान से बच जाने के कारण एक रसम शुरू की। मुझे आज तक नहीं पता कि वोह रसम किया थी , बस इतना याद है कि एक खुली जगह में गोबर की बनी हुई पाथिओं का ढेर लगा दिया गिया , यह ढेर कोई सात आठ फ़ीट ऊंचा होगा। इस ढेर को आग लगा दी गई। अब तीन आदमी आये जिन के हाथों में लोहे के संगल थे। यह संगल ऐसे थे कि एक तकरीबन दो फ़ीट लोहे के डंडे के साथ तकरीबन दो फ़ीट लम्बे पंद्रां बीस संगल बांधे हुए थे। अब वोह तीनों आदमी वोह संगल पकड़ कर आग के इर्द गिर्द चलने लगे और अपने शरीर पर वोह संगल भी मारने लगे। साथ साथ बोलते जाते ,या अली ! या अली ! . जैसे जैसे आग बड़ रही थी वोह अपने शरीर ऊपर संगल मारते जाते। उन के शरीर पर निशाँ पड़ने लगे और धीरे धीरे खून भी बहने लगा। फिर अपने पैर उस आग में मारने लगे। पाथिओं की राख बनने लगी और वोह गर्म गर्म राख के ऊपर पैर मारने लगे। पता नहीं उन को गर्म गर्म राख का सेक मालूम नहीं हो रहा था या उन्होंने पैरों को कुछ लाया होगा। जैसे वोह पागल हो रहे थे , धीरे धीरे उन का यह काम बढ़ता जा रहा था। उन्होंने उस ढेर में भी पैर मारने शुरू कर दिए। एक आदमी गिर गिया लेकिन दूसरे दो अभी भी या अली या अली कहते आग के ऊपर चकर लगा रहे थे। कुछ देर बाद कुछ आदमी आगे आये और उन को बंद करा दिया। इन तीनों की पीठ से खून बह रहा था। फिर वोह तीनों उठ कर बोलने लगे , अब सिला कभी नहीं आएगी , हम ने उन को खत्म कर दिया है। लोग ख़ुशी से तालिआं बजा रहे थे। सभी लोगों को गुड़ वाले चावल बांटे गए। शाम ढल गई थी और लोग अपने अपने घरों को जाने लगे।
सोचता हूँ , हकूमत ने मिलिटरी भेजी, कितना तेल लगा, कितने बैग डीडीटी के लगे, कितने लोगों ने इस सिला को खत्म करने के लिया अपना अपना योगदान दिया और यह लोग आग बुझा कर गारंटी दे रहे थे कि उन्होंने सिला को खत्म कर दिया, फिर कभी नहीं आएगी। इस को क्या कहें ?
चलता…
पूरा लेख तन्मय होकर पढ़ा। सिला या टिड्डी आक्रमण भी उन दिनों एक प्रकार से आपदा ही थी। ईश्वर की बनाई हुई यह सृष्टि बड़ी विचित्र है। इसे समझना सरल नहीं है। विद्वान वा वैज्ञानिक ही इसे समझ सकते हैं। टोटके और अंधविश्वास समान होते हैं। अन्धविश्वास किसी समस्या का उपचार नहीं हो सकता। इसमें फंस कर मनुष्य विक्षिप्त बुद्धि का हो जाता है। लेख रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। बधाई एवं धन्यवाद।
मनमोहन भाई , यह एक ऐसा हमला था जिस ने खेतों के खेत तबाह कर दिए थे . इस को हमारे यहाँ भी टिड्डी दल और सिला कहते थे . मुझे पूरी तरह तो याद नहीं कि कितनी गेंहूँ बाद में हुई थी , सिर्फ उन फसलों को याद करके ही लिखा है किओंकि बाद में खेत फिर लह लहाने लगे थे. जिस सब लिखने का एक ही मकसद है कि किसान को कितनी मुसीबतों का मुकाबला करना पड़ता है . कल टीवी पे मध्य परदेश में हुई दालों की बर्बादी देख रहा था तो फिर किसान याद आ गए . अब दालें बहुत मह्न्घी हो जायेंगी लेकिन किसान कहाँ जाएँ ?
धन्यवाद महोदय जी। मैंने भी बचपन में टिड्डियां देखी हैं। हमें यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि ईश्वर ने टिड्डियों को क्यों बनाया होगा? मध्य प्रदेश के किसानों एवं दाल की फसल की आपने चर्चा की है। मेरी भी पूरी सहानुभूति मध्य प्रदेश के किसानों के प्रति है। मोदी जी से उम्मीद है कि वह कुछ ऐसा करेंगे जैसा पहले किसी प्रधान मंत्री ने न किया होगा। हमें मोदीजी से और भी बहुत सी उम्मीदें हैं। ईश्वर करे कि वह देश के सबसे अधिक हितकारी प्रधान मंत्री सिद्ध हों। पाकिस्तान की सीमा पर गोलाबारी के मामले में उन्होंने अपने आप को अपने पुरवर्त्तियों से अलग सिद्ध किया है। मुझे उनमे सरदार पटेल और लाल बहादुर शास्त्री के साथ नेताजी सुभाष चद्र बोस भी दिखाई देते हैं। आपका हार्दिक धन्यवाद।
भाई साहब, आपने जिस सिला का जिक्र किया है, उसे इधर टिड्डी कहते हैं. हमने सुना और पढ़ा था कि जब टिड्डियों का हमला होता है तो वे खेत के खेत साफ़ कर देते हैं. परन्तु हमने कभी ऐसा हमला देखा नहीं. हमने यह भी पढ़ा था कि एक बार पाकिस्तान की तरफ से पंजाब के खेतों पर टिड्डियों का हमला हुआ था. आप उसी का जिक्र कर रहे होंगे.
रोचक कड़ी.
विजय भाई , मैंने तो यह देखा है . हमारे यहाँ भी सिला और टिड्डी दल कहते थे . यह बहुत ही बहिंकर समय था . अक्सर लोग कहते थे कि यह पाकिस्तान की और से आई थी . बिलकुल मैं उसी का ज़िकर कर रहा हूँ . इस बात को लिख कर नहीं बताया जा सकता , यह बहुत ही खतरनाक टिड्डी का हमला था . आसमान में इस तरह दिखाई देता था जैसे काले बादल हों . अँधेरा लगता था . यह तो भगवान् का शुकर था कि बाद में अपने आप ही ख़तम हो गई , किया कारण होगा , मुझे पता नहीं .