यदि महर्षि दयानन्द सरस्वती जोधपुर न जाते?
ओ३म्
महर्षि दयानन्द मई, 1883 के अन्त में शाहपुरा से जोधपुर गये थे। वहां आने के लिए उनको जोधपुर रियासत की ओर से निमन्त्रण मिला था। स्वामीजी को शाहपुराधीश श्री नाहरसिंह जी ने जोधपुर जाने से पूर्व वहां जाते समय संकेत करते हुए कहा था कि यह अच्छा होगा यदि वह जोधपुर में तीव्र भाषा में वेश्याओं को रखने की भर्तस्ना न करें। स्वामीजी तो सत्य कथन के लिए सर्वथा तत्पर रहते थे तथा तलवार की तीक्ष्ण धार से काटे जाने तथा तोप के मुख से बांध कर उड़ाये जाने की धमकी पाकर भी अपना कर्तव्य निभाने के लिए दृढ़–प्रतिज्ञ थे। आपने यथापूर्व इस चेतावनी को भी अनसुना करते हुए शाहपुराधीश को कहा कि वे बड़े–बड़े वृक्षों को नुहारने से काटने में विश्वास रखने वाले नहीं हैं। इनको काटने के लिए तो अति तीक्ष्ण हथियार चाहिए। जोधपुर के लिए प्रस्थान कर चुके स्वामीजी के शाहपुर से अजमेर आने पर वहां भी उनके अनुयायी आर्यपुरूषों ने उनको जोधपुर के वातावरण का संकेत कर किसी अप्रिय घटना की आशंका व्यक्त की थी परन्तु महर्षि जोधपुर जाने के अपने निर्णय पर अडिग थे। इस संबंध में आर्यसमाज के इतिहास के मर्मज्ञ प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि अजमेर के इस स्वल्प समय के प्रवास की सबसे महत्वपूर्ण घटना यही रही कि अजमेर के भक्तों को जोधपुर में ऋषि के अनिष्ट की आशंका थी। उन्हें भी महाराज पर नन्ही भगतन के प्रभाव का पता था। उन्होंने मारवाड़ को ‘राक्षस देश’ की संज्ञा दी। स्वामी दयानन्द जी जोधपुर जाकर सद्धर्म का प्रचार करने के लिए दृढ़–प्रतिज्ञ थे भले ही उनकी अंगुलियों को मोमत्तियां बनाकर जला दिया जावे। वे प्राणोत्सर्ग करने से पीछे हटने वाले नहीं थे। महर्षि जोधपुर पहुंचे और वहां जाने का जो परिणाम हुआ उससे हम सब व समस्त संसार परिचित है। महर्षि ने जोधपुर जाकर वहां अन्य स्थानों की भांति प्रवचन आदि से मिथ्या ज्ञान व अन्धविश्वासों पर चोट की। वहां के राज्याधिकारियों से उनकी भेंट भी हुई। महर्षि ने उनको सन्मार्ग दर्शन कराया। महर्षि दयानन्द की शिक्षाओं का महाराजा जसवन्त सिंह पर कोई प्रभाव पड़ा इसका तो कोई उदाहरण नहीं मिलता। हां, वहां महाराजा की चहेती वैश्या नन्ही भगतन स्वामीजी की शत्रु बन गई। जोधपुर रियासत के प्रधानमंत्री मियां फैजुल्ला खां भी महर्षि दयानन्द के प्रवचनों में इस्लाम मत की समीक्षा से व्यग्र थे। महर्षि के उपचार में वहां के सरकारी चिकित्सक डा. अलीमर्दान ने जो त्रुटियां कीं, वह भी उनके स्वस्थ न होने का एक कारण प्रतीत होता है। महर्षि दयानन्द को जोधपुर में कोई अच्छा शिष्य भी प्राप्त नहीं हुआ जैसा कि उदयपुर, शाहपुर व अन्य रिसायतों में प्राप्त हुए थे। राज परिवारों से जुड़े लोग उनके छद्म शिष्य ही दिखाई पड़ते हैं। इनकी व्यवस्था की चूक का परिणाम ही तो विषपान की घटना थी। क्या जोधपुर के महाराजा की अपनी कोई गुप्तचर व्यवस्था नहीं थी? यदि थी तो क्या उसने महाराजा को इस सम्भावित घटना की कोई सूचना दी थी या नहीं? ऐसे अनेक प्रश्न भी मन में उठते हैं। इस कारण यह कहा जा सकता है कि महर्षि के जोधपुर जाने से महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज को लाभ तो कुछ नहीं हुआ परन्तु हानि ऐसी हुई कि जो वज्रपात के समान व उससे भी अधिक कही जा सकती है। यह हानि न केवल आर्यसमाज की थी अपितु यह विश्व के मानवमात्र की सबसे बड़ी हानि थी क्योंकि वह सबसे बड़े धन “ज्ञान व विद्या” से वंचित हुआ था। इस लेख में हम इस प्रश्न पर विचार कर रहे हैं कि यदि महर्षि जोधपुर न जाते तो क्या स्थिति होती?
महर्षि का जोधपुर जाना उनके, आर्यसमाज, वैदिक धर्म व संस्कृति के लिए घोर विपत्तिकारी सिद्ध हुआ। यदि वह वहां न जाते तो अधिक समय तक जीवित रहते और वैदिक धर्म का प्रचार करते। उनको पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, लाला हंसराज, लाला लाजपत राय, लाला साईं दास, महात्मा नारायण स्वामी, पं. धर्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, महाराजा सज्जन सिंह, महाराजा नाहर सिंह जी आदि जैसे अनेक शिष्य मिलते। विधर्मियों से वह और अधिक शास्त्रार्थ करते। सत्य धर्म संबंधी और अधिक साहित्य, सामग्री, तक व प्रमाण हमें प्राप्त होते तथा वह देश भर में घूम-घूम कर प्रवचनादि देते और प्रचार करते। लाखों लोग उनके प्रवचन सुनकर उनके अनुयायी बन सकते थे। उनसे इन सब लाभों के साथ अन्य अनेक नये मौलिक स्थाई ग्रन्थ मिल सकते थे जिससे कि संसार से अज्ञान दूर करने में सहायता मिलती। इन ग्रन्थों के साथ यह आशा कर सकते हैं कि वह ऋग्वेद का भाष्य अवश्य पूरा करते। उसके बाद सामवेद का भाष्य भी कुछ दिनों में पूरा कर लेते और इसके बाद अथर्ववेद का भाष्य भी आरम्भ कर उसे सम्पन्न करते। यह सब कार्य उनके जोधपुर जाने, वहां षडयन्त्र होने, उनको विष दिये जाने, उपचार में लापरवाही होने व बाद में उनके दिवंगत हो जाने के कारण काल के गाल में समा गये।
यदि महर्षि दयानन्द जोधपुर न जाते तो यह स्वभाविक था कि वह 29 सितम्बर, 1883 की रात्रि जोधपुर में दूध के साथ विष दिये जाने के बाद जितनी अवधि तक जीवित रहते उसके अनुपात में ही कार्य करते। मृत्यु के समय स्वामीजी की आयु लगभग 58 वर्ष 9 माह थी। अतः यह सम्भव था कि यदि वह सामान्य जीवन व्यतीत करते तो न्यूनतम 80-85 वर्ष तक तो सक्रिय जीवन व्यतीत कर ही सकते थे। इससे अधिक 100 वर्ष व कुछ अधिक वर्ष भी जीवित रह सकते थे। अतः उन्हें 21 से 26 वर्ष तक का समय तो और मिलता ही। उन्होंने जो कार्य किया उसे यदि सन् 1863 जबकि वह गुरू विरजानन्द सरस्वती जी से विद्या समाप्त कर कार्यक्षेत्र में उतरे थे, आरम्भ करें तो सन् 1883 तक उन्होंने लगभग 20 वर्ष कार्य किया। इस प्रकार वह 21 से 26 वर्ष और कार्य करते तो यह उनसे इससे पूर्व किये कार्य का कई गुणा होता क्योंकि उन्हें 1863 में जब कार्य आरम्भ किया तो वह समाज व देश के लिए अनजान थे और मृत्यु के समय उनके लाखों अनुयायी बन चुके थे। इस अवधि में उनके सामने ही वेद भाष्य का कार्य पूरा हो कर प्रकाशित हो सकता था। सत्यार्थ प्रकाश का संशोधित संस्करण भी उनके सामने ही प्रकाशित हो जाता। अन्य वह कौन-कौन से ग्रन्थ लिखते यह कहा नहीं जा सकता। हो सकता है कि ब्राह्मण ग्रन्थों, दर्शनों व उपनिषदों पर भी कोई टीका व समीक्षात्मक ग्रन्थ तैयार करते। मनुस्मृति में अनेक श्लोक हैं जो महाभारत काल के बाद के लोगों द्वारा प्रक्षिप्त किये गये हैं, उनके संशोधन व अनुसंधान का कार्य भी स्वयं या अपने कुछ योग्य शिष्यों के माध्यम से हाथ में ले सकते थे। यद्यपि यह कार्य महर्षि भक्त महात्मा लाला दीपचन्द आर्य जी ने कराया है परन्तु यदि यह कार्य महर्षि दयानन्द के समय में होता तो अति उत्तम होता। उनके द्वारा तैयार विशुद्ध मनुस्मृति अधिक महत्वपूर्ण होती। इस दृष्टि से महात्मा दीपचन्द आर्य जी भी आर्य जगत की कृतज्ञता के पात्र हैं।
हम यह भी अनुभव करते हैं कि स्वामीजी बाद के जीवन में प्रो. मैक्समूलर सहित सभी विदेशी संस्कृतज्ञ वैदिक विद्वानों से सम्पर्क बढ़ाते और उन्हें अच्छी तरह से वैदिक विचारधारा से प्रभावित करते। वह उन्हें भारत आने के लिए भी आमंत्रित कर सकते थे। यह भी हो सकता था कि स्वामी जी इंग्लैण्ड व जर्मनी आदि की यात्रा करते। वहां दूभाषिये ले जाते और वेदों का जम कर प्रचार करते। हम यह जो अनुमान कर रहे हैं यह कोई अतिश्योक्तिपूर्ण अनुमान नहीं है। यह सामान्य अनुमान है जो कि सम्भवकोटि के हैं। उनके भारत में वेदभाष्य पूर्ण कर देने, उनका प्रकाशन हो जाने, अन्य-अन्य नये ग्रन्थों के प्रकाश में आने, बड़ी संख्या में आर्यसमाजों की स्थापना और वैदिक धर्मी के अनुयायियों की संख्या में वृद्धि से उनका कृण्वन्तो विश्वमार्यम का लक्ष्य सन् अक्तूबर, 1883 व उनके बाद की स्थिति की तुलना में कहीं अधिक निकट आ सकता था।
यदि महर्षि दयानन्द मई, 1883 में जोधपुर न जाते तो यह देश व संसार के लिए अत्यन्त कल्याणकारी होता और इससे मनुष्यों को सत्यधर्म के निर्णय करने व उस पर आचरण करने में पूर्वापेक्षा अधिक सहायता मिली व लाभ होता। महर्षि दयानन्द को विष देने में नन्हीं भगतन व उनके रसोईये धौड़ मिश्र (जगन्नाथ) सहित अनेक षडयन्त्रकारियों के नाम हो सकते हैं जिन पर पड़ा पर्दा नहीं उठ सका। हम यह भी समझ पाने में असमर्थ हैं कि जोधपुर के राज परिवार ने नन्हीं भगतन व वहां के अन्य सम्भावित लोगों के महर्षि के विषपान में लिप्तता की जांच क्यों नहीं की और यह क्यों नहीं बताया कि उन्होंने क्या प्रयास किये और उसके क्या परिणाम निकले। यह भी सन्देह पैदा करता है? महर्षि के शिष्य शाहपुराधीश महाराजा नाहरसिंह जी द्वारा महर्षि के रसोईये जो उनके राज्य का ही नागरिक था, उसे बन्दी बना कर पूछताछ व जांच क्यों नही कराई गई? क्या इसमें भी कहीं कोई रहस्य तो नहीं छिपा है? महर्षि दयानन्द के बारे में सरकारी खुफिया रिर्पोटों में क्या कुछ जानकारियां सरकार को दी गई थी और सरकार ने उस पर क्या निर्णय व कार्यवाही की थी, यह सब भी रहस्य है। अब सामने आ भी नहीं सकता। अतः जो भी हो, महर्षि दयानन्द का जोधपुर जाना, वहां प्रचार करना, राजाओं के चारित्रिक दोषों की आलोचना करना, वैश्याओं वा रखैलों की आलोचना सहित पौराणिक व अन्य मतों के मिथ्या विचारों व अन्धविश्वासों की आलोचना करना उनकी मृत्यु का कारण बने थे। सभी पक्षों पर विचार करने और तरह-तरह के विचार समाने आने पर भी यही कहना होगा कि शायद नियति को यही स्वीकार था। महर्षि को विषपान करना था, इसी से उनकी मृत्यु होनी थी जो कि 30 अक्तूबर, सन् 1883 को अजमेर में हुई। यह सब कुछ होने पर भी मन यही कहता है कि काश महर्षि दयानन्द जोधपुर के निमन्त्रण की उपेक्षा कर देते और वहां न जाते तो इससे देश व संसार का कितना अधिक हित होता। ईश्वर करे कि वह देश को एक बार फिर एक दयानन्द और दे जिससे विश्व में मत-मतान्तरों का अन्धकार दूर होकर सत्य वैदिक मत का चहुदिश सर्वत्र आकाश व पाताल में प्रकाश हो सके।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा . ऐसे लोगों और ख़ास कर जो महात्मा परिवर्तन लाने के लिए आते हैं , उन के गुप्त दुश्मन होते ही हैं और जब उन का चांस लगता है , वोह सांप की तरह डस जाते हैं . इन्कुआईरी नहीं हुई , कुछ न कुछ तो होगा ही . अगर वोह ज़िआदा देर जीवत रहते तो बहुत कुछ दे कर जाते .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। हार्दिक धन्यवाद। आपकी पंक्तियों से स्पष्ट हो रहा है कि आपने लेख के मर्म को समझा है। आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ। एक बात और कहना चाहता हूँ कि महर्षि दयानंद के जीवन काल में सभी मतमतांतरों के अधिकांश लोग उनके शत्रु थे और आज भी मतमतांतरों वा सामाजिक संस्थओं के लोग उनके प्रति शत्रुता का भाव रखते हैं। इसी कारण कोई उनका नाम नहीं लेता। इन लोगो को अपनी दुकानदारी खत्म होने का खतरा है।
आपका लेख अच्छा है मान्यवर! वैसे तो ऐसे मामलों में अगर-मगर नहीं चलती. लेकिन यह सत्य है कि यदि महर्षि दयानंद जी महाराज कुछ अधिक समय तक जीवित रहते तो और अधिक कार्य कर जाते. कम से कम चारों वेदों का प्रामाणिक भाष्य अपने सामने प्रकशित करा जाते. लेकिन हरि इच्छा बलीयसी !
हार्दिक धन्यवाद महोदय। आपसे पूर्णतः सहमत हूँ। महर्षि की मृत्यु का कारण जोधपुर में विष दिया जाना था। यदि वे वहां जाते ही न तो इतिहास कुछ और होता और तब हो सकता है, कि हमारे अनुमान सत्य होते। इस लेख के माध्यम से यह भी निवेदन करना है कि धर्म प्रचारकों को अपनी पुख्ता सुरक्षा जिसमे भोजन की पवित्रता भी सम्मिलित है, ध्यान रखना चाहिए।