कविता

झकझोरता चित चोरता

झकझोरता चित चोरता, प्रति प्राण प्रण को तोलता;
रख तटस्थित थिरकित चकित, सृष्टि सरोवर सरसता ।

संयम रखे यम के चखे, उत्तिष्ठ सुर उर में रखे;
आभा अमित सुषमा क्षरित, षड चक्र भेदन गति त्वरित ।
वह थिरकता रस घोलता, स्वयमेव सबको देखता;
आत्मा अलोड़ित छन्द कर, आनन्द हर उर फुरकता ।

कर प्रवाहित मन्दाकिनी, ब्रह्माण्ड की हर हिय- कणी;
दे दीक्षा ले परीक्षा, घूमे फिरे हर कुण्डली ।
हर मन सुकोमल भाव दे, सुकृति प्रकृति में ढालता;
हर ‘मधु’ के उर बोलता, हृद सभी के रह खेलता ।

— गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा

One thought on “झकझोरता चित चोरता

  • विजय कुमार सिंघल

    कविता में इतने कठिन शब्दों का प्रयोग हुआ है कि कविता का भाव कहीं दबकर रह गया है. समझ में आना ही कठिन है कि कवि क्या कहना चाहते हैं.

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