आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 11)
मौत के गड्ढे से बचना
हम कानपुर से प्रायः हर तीसरे-चौथे महीने आगरा जाया करते थे, क्योंकि वाराणसी की तुलना में कानपुर आगरा के बहुत निकट है। ऐसे ही उस वर्ष 1997 में दीवाली पर हम आगरा गये। वहाँ एक दिन रात्रि के समय लगभग 8 बजे हम महात्मा गाँधी रोड पर संजय प्लेस के सामने भगत हलवाई की प्रसिद्ध दुकान पर चाट खाने गये। हमारे सूरत वाले साढ़ू श्री हरिओम जी अग्रवाल, श्रीमती जी के भाई आलोक कुमार तथा हम सबके परिवार भी साथ में थे। सब लोग अपनी पसन्द की चीजें बनवाकर खा रहे थे।
तभी हमारी बेटी मोना ने पेशाब कराने के लिए मुझसे कहा। ऐसी ड्यूटी ज्यादातर मैं ही निभाया करता था, अतः मैं मोना का हाथ पकड़कर सड़क के किनारे ही एक अँधेरे स्थान में ले गया। वहाँ वह लघुशंका से निवृत्त होकर लौटी। मैंने उसका हाथ पकड़ रखा था। तभी वह एक दम लड़खड़ाई। मैंने हाथ कसकर पकड़ा हुआ था, अतः उसे सँभाल लिया। तब उसने शिकायत की कि मेरी एक चप्पल उतर गयी है। मैंने वहाँ ध्यान से देखा तो एक गड्ढा दिखाई पड़ा। मैंने सोचा कि कूड़े का गड्ढा है। इसलिए मैंने उसकी चप्पल ढूँढ़ने के लिए एक पाँव नीचे डाला। तभी मेरा दूसरा पैर रपट गया और दोनों पैर एक साथ नीचे जाने लगे। जब दोनों पैर नीचे गये तो कीचड़ का अहसास हुआ। मैं समझ गया कि यह मामूली गड्ढा नहीं, बल्कि सीवर लाइन का गटर है, जो नगर निगम (या नरक निगम?) के मूर्खों ने कच्चा ही रहने दिया था और खुला भी छोड़ दिया था। उसके ऊपर घास होने के कारण अँधेरे में कुछ पता नहीं चलता था। घबड़ाकर मैंने दोनों पैर फैला लिये और उनको कहीं टिकाने की कोशिश की। सौभाग्य से मेरा दायाँ पैर एक ईंट पर जाकर टिका। इसी तरह दूसरा पैर भी मैंने दूसरी ओर एक ईंट पर टिका लिया। तब मेरी जान में जान आयी। तब तक मैं सीने तक कीचड़ में धँस चुका था। अगर गटर एक फुट ज्यादा गहरा होता, तो यह निश्चित था कि मैं उसमें डूब जाता।
फिर मैंने बाहर निकलने की कोशिश की। बाहर केवल घास थी। मैंने उसे पकड़ने की कोशिश की, तो एक मेंढ़क हाथ में आया। मैंने उसे फेंककर फिर घास को किसी तरह पकड़ा और जोर लगाकर बाहर आ गया। तब तक मोना ने अपनी मम्मी से जाकर कह दिया था- ‘मम्मी, पापा गड्ढे में गिर गये।’ यह सुनते ही वे लोग घबड़ा गये और भागकर आये। तब तक मैं बाहर निकल आया था और खड़ा हुआ उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। मेरे सारे कपड़े खराब हो गये थे और वहाँ नहाने के लिए पानी भी उपलब्ध नहीं था। इसलिए आलोक फौरन मुझे अपनी मोटर साइकिल पर बैठाकर हमारे घर देहली गेट ले गये। वहाँ मैं पाइप के पानी से नहाया और कपड़े बदले।
उस दिन मेरी ही नहीं मोना की जान भी बच गयी थी। अगर गटर एक फुट ज्यादा गहरा होता, तो मैं स्वयं डूब जाता। फिर मैं तो लम्बा था, इससे एक पैर किसी तरह टिका लिया। अगर गलती से मोना उसमें गिर पड़ती तो तुरन्त पूरी तरह डूब जाती और खत्म हो जाती। भगवान ने ही हम दोनों को बचा दिया। इस घटना के बाद मैं और भी अधिक सावधान रहने लगा था तथा अँधेरे स्थानों में जाने से तौबा कर ली। हमने फिर कभी भगत हलवाई की दुकान की तरफ मुँह नहीं किया।
गोवा यात्रा
नवम्बर 1998 में हमारी योजना एल.टी.सी. सुविधा का लाभ लेकर गोवा घूमने की हुई। हम इससे पहले केवल पुरी और राजस्थान घूमने गये थे। गोवा के लिए पैकेज मिल रहा था, जिसमें हवाई जहाज से आना-जाना, 5 स्टार होटल में ठहरना और खाना-पीना सभी शामिल था। हमने इंडियन एयरलाइंस के पैकेज से घूमना तय किया। इससे पहले बच्चे और श्रीमती जी कभी हवाई जहाज से कहीं नहीं गये थे। आरक्षण कराने के बाद हम निर्धारित समय पर पहले ट्रेन से दिल्ली गये। वहाँ हम एक रात वीनू के मौसाजी के यहाँ रुके। वहाँ से सुबह ही पालम हवाई अड्डे से उड़ान पकड़ी और बम्बई होते हुए दोपहर लगभग 11 बजे गोवा पहुँच गये। वहाँ हमें लेने कम्पनी की तरफ से कार आयी हुई थी।
गोवा में हमें जिस होटल में ठहराया गया था, वह बहुत अच्छा था। तैरने की सुविधा भी थी, परन्तु मेरे पास तैरने की पोशाक न होने के कारण मैं उसका लाभ नहीं उठा पाया, लेकिन दोनों बच्चों ने इसका खूब आनन्द लिया। वहीं एक अन्य सज्जन चंडीगढ़ के श्री गोयल साहब आये हुए थे। उनके साथ उनकी पत्नी भी थीं। हम दोनों परिवारों ने मिलकर एक टैक्सी किराये पर ली थी और सब जगह घूम आये थे। एक दिन का टूर पैकेज की तरफ से था। हमें गोवा बहुत अच्छा लगा। वहाँ के समुद्र तट बहुत सुन्दर हैं। हालांकि हम समुद्र में एक-दो बार ही नहाये थे, परन्तु मजा बहुत आया। एक दिन रात्रि को नाव पर संगीत कार्यक्रम भी हुआ, जिसमें हिन्दी फिल्मों के गानों पर सामूहिक नृत्य आदि किया गया था। हालांकि मैंने उसमें नृत्य नहीं किया, लेकिन मुझे उनके द्वारा प्रस्तुत नृत्य देखकर बहुत आनन्द आया।
गोवा से लौटने में हमें थोड़ी दिक्कत हुई। कारण कि इंडियन एयरलाइंस वालों ने जिस दिन की टिकट हमें दी थी, उस दिन उनकी दिल्ली के लिए कोई सीधी फ्लाइट नहीं थी। मजबूरी में हमने एक एजेंट से पहले बम्बई की फ्लाइट ली, फिर बम्बई से दिल्ली की फ्लाइट ली। दिल्ली पहुँचते-पहुँचते हमें काफी देर हो गयी थी और हमारी लखनऊ की फ्लाइट का समय निकल गया था। इसलिए हम चिन्तित थे कि कानपुर कैसे पहुँचेंगे। परन्तु दिल्ली पहुँचने पर पता चला कि लखनऊ वाली उड़ान तीन-चार घंटे लेट है और एक-दो घंटे बाद छूटेगी। वह लखनऊ में रात्रि 1-2 बजे के बाद पहुँचने वाली थी। श्रीमती जी ने कहा कि इतनी रात में लखनऊ से कानपुर कैसे जायेंगे। मैंने कहा कि पहले तो लखनऊ पहुँचो, फिर कानपुर जाने के बारे में सोचा जाएगा। यह तय करके हमने अपना बोर्डिंग पास बनवा लिया। फिर जाकर खाना खाया, जो उड़ान लेट होने के कारण एयरलाइन की तरफ से मुफ्त खिलाया जा रहा था। खाना खाकर तृप्त होकर हम उड़ान में बैठे और रात्रि के लगभग 2 बजे लखनऊ पहुँच गये।
हम हवाई अड्डे से बाहर आये तो बाहर ही टैक्सी वालों ने कहा कि टैक्सी से कानपुर चले जाओ, कोई खतरा नहीं है। हमने कुछ सोचकर ऐसा ही करना तय किया। सौभाग्य से हमें कोई कष्ट नहीं हुआ और हम सुबह 4 बजे के लगभग अपने घर कानपुर पहुँच गये। बच्चों ने इस यात्रा का पूरा आनन्द उठाया।
मुन्ना की जान बची
हमारे मकान मालिक के घर में एक नौकर था, जिसका नाम था मुन्ना। वह कम पढ़ा-लिखा था, परन्तु मेहनती बहुत था। घर का सारा काम सफाई, कपड़े धोना और खाना बनाना भी मुन्ना ही किया करता था। मकान मालिक श्री नरेन्द्र कुमार सिंह गणित के प्रोफेसर थे, परन्तु उन्हें गुटखा खाने और शराब पीने की बहुत बुरी आदत थी। उनके पुत्र अनिल कुमार सिंह भी नियमित गुटखा खाते थे और शराब भी पीने लगे थे। वे कभी-कभी मुन्ना को भी पिला दिया करते थे। तब तक मुन्ना का विवाह नहीं हुआ था। घरेलू समस्याएँ भी थीं। इन कारणों से मुन्ना धीरे-धीरे अवसाद में घिरता जा रहा था। एक दिन ऐसी ही मनःस्थिति में मुन्ना ने आत्महत्या के इरादे से नींद की ढेर सारी गोलियाँ एक साथ ले डालीं। इसका पता लगते ही सब घबरा गये। पुलिस के झंझट से बचने के लिए वे उसे अस्पताल ले जा नहीं रहे थे। मुन्ना हालांकि होश में था, लेकिन उसे बहुत जोर के चक्कर आ रहे थे और हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी।
सौभाग्य से उस दिन रविवार था और मैं घर पर ही था। मुझे पता चला तो मैं फौरन नीचे गया और भगौना भर के पानी गर्म करने का आदेश दिया। मैं जानता था कि ऐसे मामलों में कुंजर क्रिया रामबाण होती है। पानी गुनगुना गर्म होते ही मैंने मुन्ना को चार-पाँच गिलास पिलाया और फिर वमन कराया। उसके पेट से बहुत झागदार पानी निकला। मैंने फिर पानी पिलाया और फिर वमन कराया। ऐसा 5-7 बार करने पर उसके पेट से सारी गोलियों का पानी निकल गया और चक्कर आने कम हो गये, हालांकि कमजोरी बहुत थी। फिर मैंने उसे सो जाने का आदेश दिया। लगभग 2 घंटे सोने के बाद वह ठीक हो गया। मुन्ना की इस प्रकार जान बच जाने पर हमारी मकान-मालकिन ने मुझे बहुत आशीर्वाद दिये।
कम्प्यूटर बदलना
ऊपर मैं बता चुका हूँ कि हमारे प्रधान कार्यालय ने पुराने हार्डवेयर और साॅफ्टवेयरों को छोड़कर नये कम्प्यूटर और नये साॅफ्टवेयर उपयोग करने का आदेश दिया था। वैसे भी मिनी और मेनफ्रेम कम्प्यूटरों का युग समाप्त हो रहा था और पीसी आधारित सिस्टमों का युग आ रहा था। हम इसके लिए मानसिक रूप से तैयार थे। उस समय हमारे पास ले-देकर दो पीसी थे, जिनमें से एक कुछ पुराना था और दूसरा नया था। समस्या यह थी कि हमारा वेतन गणना, पेंशन गणना, एडवांसशीट आदि का सारा डाटा पुराने कम्प्यूटर में भरा हुआ था और हमें किसी प्रकार उसे नये पीसी पर लाना था, वह भी इस तरह कि डाटा नष्ट न हो जाये। इसके लिए हमारे पास मात्र एक उपाय था। वह यह कि उस सिस्टम में एक पुराने (बड़े) आकार का फ्लाॅपी ड्राइव था। पहले उस ड्राइव का उपयोग करते हुए डाटा को किसी फ्लाॅपी पर लाना था, फिर उस फ्लाॅपी को एक पीसी की हार्ड डिस्क पर उतारना था। फिर उस पीसी से किसी दूसरे पीसी पर उतार लेना था।
यह एक बहुत जटिल काम था। इसकी जटिलता कुछ इसलिए और भी बढ़ गयी थी कि उस समय दो प्रकार की फ्लाॅपियों का उपयोग होता था- पुराने कम्प्यूटरों में 5.25 इंच व्यास की और नये कम्प्यूटरों में 3.5 इंच व्यास की, जिसे मिनी फ्लाॅपी कहते थे। गड़बड़ यह थी कि पुराने पीसी पर केवल बड़े आकार की फ्लाॅपी लगती थी और नये पीसी पर केवल छोटे आकार की। इसका तोड़ हमने यह निकाला कि पहले पुराने पीसी पर सारा डाटा धीरे-धीरे उतार लिया। यह कार्य भी कई दिन में टुकड़ों-टुकड़ों में हो पाया। लेकिन अन्ततः मैंने सफलतापूर्वक कर लिया। डाटा का कोई भी भाग नष्ट नहीं हुआ। अब उस पुराने पीसी में एक नये (छोटे) आकार का फ्लाॅपी ड्राइव भी लगवाया गया, जिससे हमें उस पीसी से डाटा निकालने की सुविधा हो गयी। इस प्रकार यह जटिल कार्य पूरा हुआ। यह कार्य लगभग एक सप्ताह में सम्पन्न हो गया। अगर इतना डाटा फिर से तैयार करना पड़ता, तो पहले तो उसके लिए डाटा का स्रोत एकत्र करना ही जटिल होता, फिर उसको प्रविष्ट करने, जाँच करने और सही करने में भी महीनों लग जाते।
लेकिन कार्य इतना ही नहीं था। अभी हमें नये प्रोग्राम भी लिखने थे, क्योंकि पुराने प्रोग्राम केवल यूनीफाई/यूनिक्स में लिखे हुए थे, जो नये पर्सनल कम्प्यूटरों पर नहीं चलते। इसलिए हमने कोबाॅल में सभी प्रोग्राम फिर से लिखे। यहाँ कोबाॅल में वर्षों तक काम करने का मेरा अनुभव बहुत काम आया और दो-तीन महीने में ही हमने सभी आवश्यक प्रोग्राम लिख डाले, जिससे केन्द्र का कार्य फिर सुचारु रूप से चलने लगा।
विजय भाई, आप गड्डे से बाल बाल बच गए ,भगवान् का शुकर है . ऐसे हादसे भारत में बहुत होते रहते हैं और देख कर गुस्सा आता है कि सेफ्टी के बारे में कोई सोचता ही नहीं .बहुत दफा टीवी पे देखा ,बच्चे गिर जाते हैं और फिर मिलिटरी आ कर उन को बचाती है . जो आप ने मुन्ना को बचाया वोह आप ने बहुत बड़ा काम किया . आप प्रक्रितक चकित्सा जानते हैं और इस से मुन्ना को बचा लिया . गोवा यात्रा का लिखा , फिर याद ताज़ा हो गई . हम ने भी बहुत लुत्फ उठाया था ,हम kailangoot ठहरे थे और donacina होटल में थे . स्पाइस गार्डन दूध सागर और अंजुना मार्किट भी थे ,पंजी में तो हम ने तरह तरह के होटलों में खाना खाया था जो पहले कभी नहीं खाया था लेकिन आखर में कुछ अपसैट हो गिया था .
धन्यवाद आदरणीय श्री विजय ही। ईश्वर का धन्यवाद है कि आगरा में हलवाई के पाक वाले गड्ढे में कोई अन्य अनहोनी होने से बच गई। मुन्ना को आपने अपनी प्राकृतिक चिकित्सा से स्वस्थ कर डाला, यह आपकी बहुत बड़ी उपलब्धि है। ऐसी घटनाओं का प्रचार कम से लोगो को प्राकृतिक चिकित्सा में विश्वास वा भरोसा कम है। इसका प्रचार होना चाहिए। आपकी गोवा यात्रा का हाल भी रोचक है। आपने कार्यालय में कम्प्यूटर विषयक जो जानकारी दी है वह भी रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। हमने भी कार्यालय में बड़ी व छोटी दोनों प्रकार की फ्लोपियों का प्रयोग किया है। हार्दिक धन्यवाद।
आभार मान्यवर !