कविता

सुलगा हुआ जग लग रहा!

सुलगा हुआ जग लग रहा, ना जल रहा ना बुझ रहा;
चेतन अचेतन सिल-सिला, पैदा किया यह जल-जला ।

तारन तरन सब ही यहाँ, संस्कार वश उद्यत जहान;
विधि में रमे सिद्धि लभे, खो के भरम होते सहज ।
आत्मीय सब अन्तर रहे, माया बँधे लड़ते रहे;
जब भेद मन के मिट गये, उर सुर मिला गल मिल गये ।

तब अग्नि ना आहत करी, उपयुक्त संयत सी लगी;
ना धूम्र उम्र असर किया, वह धर्म बह कर चल दिया ।
आनन्द वर वश छा गया, अपना- पना मग मिल गया;
ना प्रताड़ित कोई किया, ‘मधु’ स्वर निनादित सब रहा ।

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा

 

One thought on “सुलगा हुआ जग लग रहा!

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह !

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