मेरी कहानी ३९
मेरे जैसे इंसान के लिए स्वजीवनी लिखना इतना आसान नहीं है क्योंकि अपनी कहानी लिखने के लिए सचाई लिखनी पड़ती है और यह सचाई लिखने में बहुत कठनाईआं पेश आती हैं। मैंने कुछ स्वजीवनीआं पडी हैं , जैसे खुशवंत सिंह जी और फिल्म स्टार देवा नन्द जी की। अपनी जीवनिओं में उन्होंने वोह सब कुछ लिखा है जिसे पड़ कर अक्सर मैं सोचता था कि उन के बच्चों ने जब यह किताबें पड़ी होंगी तो क्या सोचते होंगे। कल मैंने ३९ अंक सारा लिख लिया था। पहले तो यह अंक लिखने में मुझे बहुत वक्त लगा , दूसरे जब मैंने कई दफा पड़ा तो मुझे अच्छा नहीं लगा। मुझे लगा इस से घर में गलतफैहमीआं पैदा हो सकती थीं । हमारे घर में कोई भी साहित्कार नहीं है जो मेरी भावना को समझ सके, इस लिए मैंने सारा अंक डिलीट कर दिया और यह नया लिख रहा हूँ। एक और बात जो मेरे मन में आ रही थी कि मैं इतने अंक लिख कर भी अभी बचपन में ही बैठा हूँ ,अभी भी मैं मिडल स्कूल में हूँ। कब यह मेरी कहानी खत्म होगी ?
वैसे मेरी नींद शुरू से ही आठ नौ घंटे रही है लेकिन पिछली रात मुझे सुबह ही तीन वजे जाग आ गई और सारी रात जागता रहा। तरह तरह के विचार मन में आते रहे। मेडीटेशन करने की बहुत कोशिश की लेकिन खियालों का पंछी दूर दूर तक उड़ता रहा। मैं फिर बचपन में घूमने लगा। मिडल स्कूल से आगे जाऊं या फिर बचपन में चला जाऊं ? मैं फैसला ना कर सका। सुबह का नाश्ता लेने के बाद मैंने सोचा, बचपन की कोई भी याद मुझे छोड़नी नहीं चाहिए , इस लिए मैं यह ३९ अंक दुबारा लिख रहा हूँ। कल मेरा छोटा पोता जो अभी छोटे स्कूल में जाता है , उस को स्कूल से छुटी थी , वोह गयारह वर्ष का है। मेरी पत्नी सुबह को उसे स्कूल छोड़ने जाती है और तीन वजे उसे स्कूल से वापस लेने के लिए जाती है। जब वोह बाराह वर्ष का हो जाएगा तो हाई स्कूल में चला जाएगा। उस के बाद वोह खुद बस में जाएगा। जब तक बच्चा हाई स्कूल में नहीं जाता ,तब तक माता पिता की ज़िमेदारी ही होती है। लेकिन जब मैं अपने बचपन में जाता हूँ तो देखता हूँ कि हमारी तो किसी ने इतनी फ़िक्र की ही नहीं। जिधर चाहते थे हम घूमते रहते थे, सिर्फ शाम को घर आना जरूरी था। यही बचपन की यादें लिखने के लिए मन में खलबली थी।
मेरा खियाल नहीं कि मैं छे सात वर्ष से ज़्यादा हूँगा , आहलूवालिओं के मोहल्ले में गियान चंद की दूकान के नज़दीक बहुत लड़के आपस में बातें कर रहे थे। वोह सब दस बाराह या तेरह वर्ष के होंगे। उन्होंने फगवारे जाने का प्रोग्राम बना लिया और मैं मासूम भी उन लड़कों के साथ चल पड़ा। ना मेरे पास कोई पैसा, न अच्छे कपडे , मैं भी उन के साथ चल पड़ा। किसी ने मुझे रोका नहीं। यह सारा रास्ता पैदल सफर ही था। किस वक्त हम फगवारे पुहंचे मुझे याद नहीं लेकिन मैं उन के साथ शहर में घूमता रहा। बहुत बातें तो बड़ा हो कर ही मेरी समझ में आईं। सारे लड़के बाँसाँ वाले बाजार में घूमने लगे। बाँसाँ वाले बाजार में उन लड़कों ने आलू छोले खाने का मन बनाया। वहां एक बोहड़ के बृक्ष के नीचे एक बड़ा तगड़ा , शलवार और बड़ी तुर्रे वाली पगड़ी बांधे आलू छोले और कुलचे बेचा करता था। जब हम बड़े हो गए थे तो इस के आलू छोले ही खाया करते थे क्योंकि इन के छोले शहर तो किया दूर दूर के गाँवों के लोग यहां खाने के लिए आते थे। यह सिंह जी जो पाकिस्तान से उजड़ कर आये थे उन का बिज़नेस बहुत अच्छा हो गिया था।
सारे लड़कों ने छोले खाए लेकिन मुझे किसी ने नहीं दिए हालांकि मुझे भूख लगी हुई थी लेकिन मेरे पास तो कोई पैसा ही नहीं था। फिर लड़के कुछ दूर जा कर सोडा वाटर की दूकान में चले गए। यह दूकान एक शख्स की थी जिस का नाम नाथ था और इस की दूकान भी बहुत मशहूर होती थी , शायद यह दुकानें अभी भी उन के वारस चला रहे हों लेकिन मुझे पता नहीं। फिर जब १९७३ में मैं बच्चों को लेकर इंडिया आया था तो इसी नाथ की दूकान से बच्चों को सोडा पिलाया था और यहां से ही हमें कॉर्नफ्लेक्स मिले थे। नाथ का शरीर वैसा ही था जैसे मैं छोड़ कर गिया था , गोरा रंग ,क्लीन शेव लेकिन बड़ी सी पगड़ी उन के सर पर थी।
जब सारे लड़कों के साथ मैं भी दूकान के अंदर गिया तो एक कुर्सी पे चुप चाप बैठ गिया। सभी लड़के सोडा पीने लगे लेकिन मुझे किसी ने भी कुछ नहीं दिया। एक लड़के का भरा ग्लास मेज़ से नीचे गिर गिया और टूट गिया। एक लड़का जो दूकान में काम करता था उस ने ग्लास के भी पैसे और सोडे के तो लेने ही थे उस लड़के से ले लिए। अचानक नाथ उधर आ गिया। उस लड़के ने सारी बात नाथ को बताई। नाथ बोला, “कोई बात नहीं बेटा ,मैं अभी तुझे सोढे का नया ग्लास ला देता हूँ ” और उस ने एक नई बोतल खोल कर एक ग्लास में डाली और उस लड़के को दी। लड़का खुश हो गिया और सभी नाथ की सिफत करने लगे लेकिन मेरा किसी को खियाल नहीं आया। सोडा पी कर सभी दूकान से बाहर आ गए। मैं भी उन के साथ चलने लगा।
कुछ दूर ही गए थे कि बाइसिकल पर मुझे मेरे दोस्त तरसेम का डैडी आता दिखाई दिया । मुझे देखते ही वोह मेरी तरफ आ गिया ,” ओए तू यहां कैसे आ गिया?”. दूसरे लड़कों से उस ने बात की और उन को कहा कि मुझे छोड़ कर ना जाएँ। फिर उस ने अपने बटुए में से दो आने निकाल कर मुझे दे दिए और कहने लगा , “मैंने एक जरूरी काम से कहीं जाना है नहीं तो तुझे गाँव छोड़ आता “और फिर वोह चले गिया। उन पैसों का मैंने खाने के लिए एक रेहड़ी से कुछ लिया। कुछ पेट भरा और लड़कों के साथ चलने लगा।
शाम को जब मैं घर पहुंचा तो घर के सभी सदस्य चिंता में डूबे थे। मुझे देखते ही वोह हैरान से हो गए। पिता जी भी बैठे थे ,डर के मारे मैं रोने लगा लेकिन पिता जी ने मुझे कुछ नहीं कहा लेकिन उन का चेहरा उदास था ,बोले ” ओए तू किसी गाड़ी के नीचे आ जाता तो किया होता ?”. मैंने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन मेरा मन रोने को करता था। मुझे नहीं मालूम था कि मैंने किया गलत किया था। सभी चले गए और माँ मुझे रसोई में ले गई। एक थाली में दाल रोटी पा कर मुझे दे दी। चुप चाप मैंने रोटी खा ली और माँ ने मुझे चारपाई पे पड़े बिस्तरे में सुला दिया।
इस के कुछ वर्षों बाद ही एक फिल्म आई थी भगत सिंह शहीद। यह शायद १९५३ ५४ होगा। इस फिल्म के पोस्टर हमारे गाँव में भी लगे थे। इस पोस्टर पे भगत सिंह की फोटो एक हैट और तीखी मूंछों वाली थी। हमारे गाँव का एक लड़का प्रकाश फगवारे सिनिमा में गेट मैंन लगा हुआ था , शायद उसी ने यह पोस्टर लगाये होंगे। मैंने अभी तक कोई फिल्म नहीं देखि थी। मेरा दोस्त तरसेम बाइसिकल चलाना सीख गिया था। एक दिन मुझे कहने लगा “क्यों न हम फिल्म देखने चलें ?”. माँ से मैंने पैसे मांगे। पिताजी गाँव में नहीं थे। माँ ने मुझे पैसे दे दिए और तरसेम को कहा ” देखना शहर में कारों बसों से बच के रहना “. माँ ने मुझे कभी भी ज़िंदगी में निराश नहीं किया था। तरसेम के बाइसिकल के पीछे मैं बैठ गिया और दोनों दोस्त फगवारे को रवाना हो गए।
फगवारे पैराडाइज़ सिनिमा नया नया बना था। जब हम पैराडाइज़ पुहंचे तो वहां बहुत भीड़ थी। हमें कुछ नहीं पता था कि हम ने सिनिमा हाल में कैसे जाना था। अचानक हमारे गाँव का लड़का प्रकाश आ गिया और हम ने उस से पुछा कि फिल्म कैसे देखनी थी। उस ने पहले हमारा बाइसिकल रखवाया और एक टोकन ले के दिया ,फिर उस ने खिड़की की ओर इशारा किया कि हम टिकट ले लें। तरसेम एक भीड़ी सी गली में चले गिया यहां एक खिड़की से टिकटें मिलती थीं। टिकट लेने के बाद प्रकाश हमें सिनिमा हाल की ओर ले गिया। उस ने हमारे हाथ से टिकटें ले लीं और उन को फाड़ कर आधी हमें पकड़ा दी और अंदर ले जा कर हमें सीटों पर बिठा दिया।
हैरान हुए हम हाल के चारों ओर देख रहे थे। हाल लोगों से भरा हुआ था। हमें कुछ नहीं पता था कि किया होने वाला था। स्क्रीन की तरफ जैसे लोग देख रहे थे हम भी देखने लगे। कुछ देर बाद जब स्क्रीन पे फिल्म चलने लगी तो हम स्क्रीन पे इतने बड़े बड़े आदमी औरतें देख कर हैरान हो गए। कभी कारें दौड़ने लगतीं कभी मोटर साइकल दौड़ने लगते। हमें कुछ मालूम ना था कि यह सब किया हो रहा था। मुझे तो एक गाने के कुछ बोल ही याद हैं ,”सर फरोशी की तम्मना अब हमारे दिल में है ” जो शायद फिल्म के आखिर में था। जब हाफ टाइम हुआ तो लोग कुछ खाने के लिए बाहर जाने लगे। हम ने समझा शायद फिल्म खत्म हो गई थी। हम अपने साइकलों की तरफ जाने लगे। हमारे गाँव का लड़का प्रकाश शायद जान गिया था , इस लिए हमारी तरफ आया और बोला ,” अभी तो आधी फिल्म और रहती है , वापस अंदर चले चलो ” . हम फिर सिनिमा हाल के अंदर चले गए लेकिन हम दोनों को कुछ भी समझ में नहीं आया कि हम ने किया देखा था। मज़बूरी से हम बैठे रहे। जब फिल्म खत्म हुई तो तरसेम ने अपना बाइसिकल उठाया और हम फिर गाँव की ओर चलने लगे। यह थी हमारी पहली फिल्म।
कुछ महीनों बाद दसहरा आ गिया। मैंने कभी दसहरा नहीं देखा था। बहुत से लड़के दसहरा देखने की तैयारी करने लगे। लड़कों ने जालंधर का दसहरा देखने का प्रोग्राम बनाया। मैंने अपने दोस्त तरसेम से पुछा कि उस का किया इरादा था। उस का भी मन कर आया लेकिन अभी भी हम बहुत छोटे थे और खुद जाने के लिए असमर्थ थे। दूसरे लड़के तो बड़े थे और उन्होंने फिल्म देखने का प्रोग्राम भी बना लिया। मैं और तरसेम ने घर वालों से पैसे लिए और उन लड़कों के साथ जाने का ठान लिया। दसहरे वाले दिन हम सब गियान की दूकान के पास इकठे हो गए। दसहरा देखने जालंधर जाना था। जो बड़े लड़के थे उन्हों को तो पता था कि किया करना था। पहले हम ने चहेरु गाँव पौहंचना था। वहां चहेरु का छोटा सा रेलवे स्टेशन था। चहेरु तकरीबन चार किलोमीटर है।
हम अपने गाँव राणी पुर से सारे इकठे हो कर पैदल चलने लगे। बड़े लड़के शरारते करते जा रहे थे। इस दफा माँ ने मुझ को तीन पराठे बाँध दिए थे ताकि भूखा ना रहूँ। तरसेम भी कुछ खाने के लिए ले आया था। जब चहेरु रेलवे स्टेशन पर पुहँचे तो दूसरे लड़कों को देख कर हम ने भी जालंधर के टिकट ले लिए। ट्रेन पे हम ने पहली दफा सफर करना था। दूर से तो चलती ट्रेन आदम पुर की रेलवे लाइन पर देखी हुई थी लेकिन नज़दीक से कभी नहीं देखी थी और ना ही इस में कभी चढ़े थे । जब ट्रेन धुआं छोड़ती हुई स्टेशन पर आई तो दूसरों की तरफ देख कर मैं और तरसेम भी चढ़ गए। हमारे लिए यह एक अजीब नज़ारा था। चलती गाड़ी की खिड़किओं से हम भागे जाते बृक्ष और मकानों को देख देख कर हैरान और खुश हो रहे थे । चहेरु से जालंधर इतना दूर नहीं है। पहले जालंधर कैंट आया और इस के बाद कुछ मिनटों बाद ही जालंधर आ गिया। दूसरे लड़कों के साथ ही हम भी ट्रेन से उत्तर गए और स्टेशन के बाहर आ गए। हम देख देख कर हैरान हो रहे थे। जालंधर की रौनक देख देख कर हम खुश हो रहे थे।
सारा दिन हम जालंधर शहर में घुमते रहे। जब शाम होने लगी तो दसहरे की ग्राउंड की तरफ जाने लगे. जब हम पुहंचे तो देख कर हमें विशवास नहीं हुआ कि रावण इतना बड़ा बना हुआ था , उन के दस सर बने हुए थे। तरह तरह की झाकिआं निकल रही थीं जिस में हनुमान को देख कर हम हैरान हो रहे थे । बड़े लड़के बोलते जाते ,जिस को सुन कर हम खुश होते। राम चन्द्र जी सीता और लक्ष्मण की मेक अप में लड़के ग्राउंड के बीच में घूम रहे थे। बानरों की सैना भी हाथों में गदा उठाए ऊछल कूद रहे थे। सारा ग्राउंड दसहरा देखने वालों से भरा हुआ हुआ था। जब शाम हुई तो रावण को आग लगाईं गई और पटाखे चलने लगे। पटाखों की आवाज़ से आसमान गूंजने लगा। ख़ुशी से लोग बहुत शोर मचा रहे थे , उनके चेहरों पर ख़ुशी की उकसाहट थी। कुछ देर बाद लोग वहां से जाने शुरू हो गए और हम भी रेलवे स्टेशन पर आ गए। स्टेशन के बैंचों पर बैठ कर हमने अपने पराठे खाए। लड़के दसहरे की बातें कर रहे थे।
घंटा दो घंटे हम स्टेशन पर बैठे बातें करते रहे और फिर सभी लड़कों ने फिलम ‘अली बाबा चालीस चोर’ देखने का मन बना लिया। मुझे और तरसेम को तो अभी भी फिल्म के बारे में कुछ ख़ास पता नहीं था.९ वजे का शो देखना था और यह फिल्म संत सिनिमा में लगी हुई थी। जब हम संत थिएटर पुहंचे तो काफी अँधेरा हो चुक्का था और टिकट लेने वालों की भीड़ बहुत थी। जैसा बड़े लड़कों ने किया वैसे ही हम कर रहे थे। सभी लड़के टिकट लेने के लिए टिकट खिड़की की ओर लगी लाइन में खड़े हो गए। धकम धक्का हो रहा था। लाइन तो कहने को ही थी , लोग एक दूसरे से आगे जाने की कोशिश कर रहे थे। हम लड़के वोह भी गाँव के, तर्सयोग हालत में थे। धक्कों के कारण कभी हम आगे चले जाते कभी पीछे। लोहे की सलाखों से बनी खिड़की में एक छोटी सी गली थी जिस में लोग पैसे पकडे हुए अपने हाथ डाल देते और टिकट वाला बाबू टिकट दे देता। कई चलाक लड़के, खिड़की से टिकट लेते दूसरा उस के ऊपर चढ़ जाता। उस के बाद ही वोह पैसों वाला हाथ खिड़की में घुसेड़ देता। बाहर आ कर वोह ज़्यादा पैसे ले कर टिकट लोगों को बेच देते और फिर खिड़की की और चले जाते। कभी गाली गलौच होने लगता ।
यह देख देख कर हमारे सभी लड़के तंग आ गए और सिनिमा ना देखने की सोचने लगे। तभी संत सिनिमा की एक अंधेरी सी गली में से दस बारह लड़के जिन के हाथों में हाकिआं थीं, आ गए ,आते ही उन लड़कों को मारने लगे जो खिड़की पर दबाओ डाले हुए थे। कई लड़के गिर गए और उठ कर दौड़ने लगे। जल्दी ही उन्होंने लाइन ठीक कर दी, जिस का नतीजा यह हुआ कि हम आगे आ गए और दो मिनट में ही हमें टिकट मिल गए। जल्दी ही हम सिनिमा हाल में जा कर सीटों पर बैठ गए लेकिन हमें सीटें बिलकुल ही स्क्रीन के नज़दीक मिलीं। यह फिल्म मैंने कुछ वर्ष बाद भी किसी रविवार के स्पैशल शो में देखी थी इस लिए कुछ कुछ याद है। इस में महींपाल और शकीला थे और शायद वी एम विआस डाकुओं का सरदार था। एक गाना था “सीए जा सीए जा सीए जा ” और कोई कपडा सी रहा था। एक था ” देखो जी चाँद निकला पीछे खजूर के ,बसरे की हूर नाचे आगे हज़ूर के “. ज़्यादा हमें कुछ समझ में नहीं आया। जब फिल्म खत्म हुई आधी रात से ऊपर हो चुक्की थी। बाहर निकल कर हम रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़े। अब हम ने रेलवे स्टेशन के बैंचों पर ही सोना था और सुबह को वापसी ट्रेन लेनी थी। अब हम को ठंड लगने लगी। सारी रात हम सो नहीं सके। सुबह हुई तो लड़कों ने ट्रेन के टाइम का पता किया तो अभी दो घंटे बाकी थे। स्टेशन पर चहल पहल हो चुक्की थी और चाए वाले इधर उधर जा रहे थे। हम ने भी चाए ली और साथ में कुछ खाया। दो आदमी बहुत सी तेल की शीशीआं बक्से में डाले इधर उधर घुमते हुए तेल मालिश ,तेल मालिश बोल रहे थे। हमारे नज़दीक ही एक आदमी ने तेल मालिश करवानी शुरू कर दी। वोह आदमी कमीज उतार कर एक कपडे पर लेट गिया। तेल वाले ने उस की पीठ पर पहले तेल की मालिश की और फिर जोर जोर से उस की पीठ पर हाथ मारने लगा जिस से ठप ठप आवाज़ आ रही थी। एक ओर एक आदमी एक बक्सा पकडे कान मैल कान मैल बोल रहा था और जल्दी ही उस ने एक गाहक के कान से मैल निकालनी शुरू कर दी। यह मालश वाला और कान मैल वाला ज़िंदगी में मैंने पहली और आख़री दफा देखा था ,हो सकता है मैंने ही धियान ना दिया हो ,इस के बाद कभी भी ऐसे आदमी के दर्शन नहीं हुए।
हमारी ट्रेन का वक्त हो गिया था। ट्रेन पकड़ कर पहले चहेरु और पैदल मार्च करके हम सभी लड़के गाँव आ गए। यह बचपन की याद अगर मैं ना लिखता तो एक पछतावा ही रहता।
चलता………
आदरणीय भाई साहब आप के बचपन की बाते पड़कर बहुत आनद आया | मुझे मेरा बचपन याद आ गया । हम भी जब स्कूल जाया करते थे मुहल्ले की सभी लडकिया इक्कठे आपने अपने ग्रुप बना कर स्कूल जाया करती थी। भारी भारी बैग कंधे पर ढोय, स्कूल जाया करते थे गर्मी के दिनों में धुप से बचने के लिए वही बैग सर पर रख लेते , बचपन की तो बात ही निराली होती है । आप की दुसेहरे की बात पड़ कर मुझे याद आया मैं बहुत छोटी थी ७-८ साल की , मेरे पास एक मिट्टी की गुल्लक होती थी जिस में मैं पैसे जमा किया करती थी मेरा भाई जो मुझसे सात साल बड़ा है बहुत शरारती हुआ करता था | मुझे कहने लगा ” तुझे पता है राम लीला लगी हुई है ? तू देखना चाहती है मैंने कहा हा भैया तो वो कहने लगा थोड़े पैसे मेरे पास है …अगर तू जाना चाहती है तो अपनी गुल्लक को तोड़ कर उसमे से पैसे निकाल ले … पहले तो मैंने मना कर दिया पर फिर राम और सीता हनुमान देखने की चाह में मैंने गुल्लक तोड़ कर उसमे से पैसे निकाले| हम दोनों के पैसे जोड़ कर सिर्फ एक ही टिकट खरीदी जा सकती थी । मेरा भाई मुझे बोला इस बार मुझे ये पैसे दे दे, मैं रामलीला देख आऊंगा फिर, मैं पैसे इक्कठे कर तुझे भी किसी दिन ले जाऊँगा । ये बात सुन कर मैंने तो रोना धोना शुरू कर दिया” नहीं नहीं जाउंगी तो मैं भी, वर्ना मेरे पैसे वापिस करो मैंने इतनी मेहनत से जोड़े है अब मेरा भाई चालाकी दिखा कर मुझे कहने लगा अच्छा ठीक है तू तयार हो कर खिड़की पर मेरा इन्तजार कर मैं साइकल लेकर आता हु । मैंने वैसा ही किया मेरा भाई साइकल पर सवार होकर मुझे बाई बाई करते हुए हँसते हुए वहां से निकल गया । उसकी इस शरारत पर मुझे बहुत गुस्सा आया और रोना भी । जब वो वापिस आया मैंने उससे खूब लड़ाई की । भाई बहनो में ऐसी लड़ाईया तो होती ही रहती है फिर एक दिन उसने हम दोनों के लिए पैसे जमा किये और मुझे रामलीला दिखाने ले गया उसने वाधा पूरा किया तब कही जा कर मैं खुश हुई । बचपन की बाते सचमुच बहुत प्यारी होती है जो कभी नहीं भूलती । इस कड़ी के लिए आप का हार्दिक धन्यवाद |
नमस्ते एवं धन्यवाद श्री गुरमेल सिंह जी। मैंने मुख्य रूप से स्वामी दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द जी की, स्वामी ब्रह्ममुनि व महात्मा नारायण स्वामी जी की ही आत्मकथायें पढ़ी हैं। बहुत से महापुरूषों की मैं आत्मकथायें पढ़ना चाहता था परन्तु उन्होंने अपनी आत्मकथायें लिखी ही नहीं। स्वामी श्रद्धानन्द जी की आत्मकथा पढ़ कर मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ। वह जालन्धर के तलवन गांव में पैदा हुए थे। उन्होंने अपने जीवन की वह घटनायें भी लिखी हैं जिसे लिखने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। उनसे प्रभावित होकर गांधी जी ने भी उस प्रकार की, अपने चरित्र हनन की, घटनायें लिखी हैं। गांधी जी उन्हें अपना बड़ा भाई कहते थे। बचपन से ही मुझे फिल्म देखने का शौक था। पहली व दूसरी फिल्म बहुत कम उम्र में शायद देवानन्द की असली-नकली और एक अन्य देखी थी जिसका नाम याद नहीं। आपकी ही तरह फिल्म देखकर कुछ पता नहीं चला कि क्या कहानी थी। कुछ समझ में नहीं आया था। मनोज कुमार की शहीद फिल्म मैंने शायद 1964 में चकराता के आर्मी सिनेमा हाल में अपने पिता के साथ ही देखी थी। ‘सरफरोसी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ और इसके सभी गाने मुझे बहुत पसन्द थे। अधिकांश आज भी याद हैं। यह फिल्म मैंने 6 या 7 बार देखी थी। इसी प्रकार से एक फिल्म दो कलियाॅ भी 6-7 बार देखी थी। आज भी मुझे बच्चों की फिल्में अच्छी लगती हैं। वैसे आर्यसमाज के सम्पर्क में आने और स्वाध्याय में रूचि होने के बाद से फिल्मों को देखने का सिलसिला बन्द हो गया। आपका हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन जी ,नमस्ते और टिपणी के लिए धन्यवाद . स्वामी श्रधा नन्द जी का आप ने लिखा जो तलवन में पैदा हुए थे और उन्होंने अपनी जीवनी में तलवन और आस पास के गाँवों के बारे में भी कुछ लिखा है ? ज़िआदा नहीं ,कुछ भी हो जान्ने की इच्छा है . अपनी जीवनी मैं लिख रहा हूँ लेकिन मैं तो एक साधारण विअकती हूँ ,बस एक साधारण इंसान की कहानी ही लिख रहा हूँ . एक मंगता भी साधारण इंसान है , उस की भी अपनी जीवन कथा है , यह सब विजय भाई के संपर्क में आने से ही संभव हो सका है ,वर्ना मेरे तो खाबोखियाल में भी नहीं था . फिलम की बात लिखी ,बचपन में बहुत शौक था , यह दो फिल्मों को देखने के बाद जब मैं नौवीं क्लास में फगवारे आया तो सकूल की तरफ से आधे टिकट पर हमें फिल्म जाग्रति दिखाई गई जो बच्चों के लिए शिक्षदाएक थी जिस का एक गाना कुछ ऐसा था “इस देश को रखना बच्चो संभाल के “. इस के बाद देखि थी ,तूफ़ान और दीया जिस का एक गाना था ,”निर्बल से लड़ाई भलवान की ,यह कहानी है दिए की और तूफ़ान की “,शिव भगत , चाचा चौधरी ,एक झलक ,छू मंतर जिस में जॉनी वाकर हीरो था. दसवीं में आ कर तो हम चार दोस्तों ने बहुत फ़िल्में देखीं थी जिस में ख़ास थी नया दौर जो उस ज़माने की मशहूर फिल्म थी जिस का एक गाना बहुत मशहूर था ” साथी हाथ बढाना ,एक अकेला थक जाएगा ,मिल कर बोझ उठाना “. कुछ फ़िल्में हम हर रविवार को स्पेशल शो देखते थे . समय समय की बात है ,अब तो कोई फिल्म अच्छी नहीं लगती ,सिर्फ दाकुमैन्त्री ही देखता हूँ वोह भी कभी कभी . कभी कभी सौ साल पहले की फ़िल्में और गाने यू तिऊब पर देखता हूँ . धर्म में मेरी रूचि कोई ख़ास नहीं रही किओंकि जो मेरे विचार हैं वोह कम ही किसी से मिलते हैं . और इस के बारे में बहस करने से किसी नतीजे पर नहीं पुहंचा जा सकता . आप आर्य समाज की स्टडी में बहुत दिलचस्पी लेते हैं ,जिस के बारे में बहुत सी बातें पसंद आईं किओंकि मैं वहमों भरमों से इतना दूर हूँ कि शाएद ही कोई मेरे खियालों का हो . किसी से बहस करना मुझे पसंद नहीं . आप से मैंने बहुत कुछ सीखा है ,जिस का धन्यावाद ही करूँगा .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। स्वामी श्रद्धानन्द जी के गांव तलवन का विवरण उनकी ही कलम से उनकी आत्मकथा से प्रस्तुत कर रहा हूं। उन्होंने लिखा है कि मां पर पूत पिता पर घोड़ा बहुत नहीं तो थोड़ा-थोड़ा। मेरा जन्म स्थान, नाम व संस्कार। संवत् 1913 (सन् 1857 ई.), मास फाल्गुन, कृष्ण त्ऱयोदशी के दिन मेरा जन्म हुआ। मेरे पिता उन दिनों रोजगार की तलाश में घर से बाहर गये हुए थे। पंचनद (पंजाब) प्रान्त में जालन्धर एक जिला है जो अपने मुख्य नगर के नाम से प्रसिद्ध है। जनोक्ति यह है कि इसी स्थान में जालन्धर दैत्य का राज्य था और यहां ही दैत्यों के शत्रु-मुरारि के हाथ से वह मारा गया। दैत्य भी ऐसा था कि जिसकी स्त्री पतिव्रता थी और उसी के प्रताप से जहां उसका रक्त गिरता वहां प्रति बूंद एक जालन्धर उत्पन्न हो जाता। मुरारि ने किस विधि से उसका वध किया इसके लिखने की जरूरत नहीं। फिर जालन्धर में माण्डलिक हिन्दू राजे शासन करते रहे। मुसलमानों के समय में अदीनाबेग यहां का हाकिम रहा और अंग्रेजों ने इस जिला बना लिया। जिला जालन्धर के पूर्वी कोने पर शतद्रु सतलज नदी के किनारे तलवन एक उपनगर है। वहीं मेरी जन्मभूमि है। किसी समय जालन्धर दुआब में ढाई शहरों की गिनती हुआ करती थी–पूरा शहर ‘तलवन’ पूरा ‘बिजवाड़ा’ और आधा ‘हदियाबाद’। अब ये तीनों स्थान केवल ग्राम की स्थिति में रह गये हैं। पुरानी कीर्ति के लिए उदारता और ब्याह-शादियों की करतूत की बदौलत मेरे जन्म समय भी इनका कुछ मान था। अब तो जब से नापित अर्थात् नाऊ राजा के शासन से छुटकारा पाकर पुराने प्रसिद्ध कुलीन भी रिश्ते-नाते देख-भालकर करने लगे हैं। तब से इन शहरों की करतूतों का चमत्कार भी मद्धिम पड़ गया है।
नयादौर फिल्म मैंने भी 2 या 3 बार देखी थी और मुझे बहुत अच्छी लगी थी। दिलीप कुमार और अजीत के किरदार आज भी कुछ-कुछ याद हैं। तांगे व कार की दौड़ भी स्मृति में अभी बसी हुई है। इसके अतिरिक्त भी कुछ यादें हैं। संसार के सभी मनुष्यों का धर्म एक ही है और वह सत्य और न्याय का आचरण है। आप जिसकी बात कर रहे हैं उन्हें पन्थ, मत, सम्प्रदाय, रिलीजियन या मजहब कहते हैं। इन सभी सम्प्रदायों में धर्म अर्थात् सत्य व न्याय का कुछ अंश होने से बुद्धिमान लोग भी भ्रमित हो जाते हैं। मेरा मानना है कि आप धर्म को तो मानते हैं परन्तु मतों व सम्प्रदायों की उलजलूल बातों को नहीं मानते। इस आधार पर मैं भी आपके विचारों का ही हूं। हां, मैं आसन में बैठकर आंखें बन्द कर ईश्वर के चिन्तन, मनन व ध्यान को आवश्यक मानता हूं। यह एक प्रकार से संसार बनाने वाले ईश्वर का धन्यवाद कहना मात्र है। इसके अतिरिक्त वायु शुद्धि के लिए यज्ञ-हवन करने को भी मैं उचित मानता हूं। वेदमन्त्रों के उच्चारण के साथ गोघृत आदि की यज्ञकुण्ड की अग्नि में आहुतियां डालने से वायु शुद्ध और पुष्टिकारक, रोगनिवारक, आयुवर्धक होती है व यज्ञ करने से ईश्वर से की गई प्रार्थना की वस्तुयें प्राप्त होती हैं। आपके सभी विचारों के लिये मैं आपक हृदय से आभारी हूं।
bachpan ki un miththi yaadon me kho jaane doi
aanchal me maa ke ek baar fir se so jaane do …..bahut sundar aatmkatha 🙂
छोटी बहन जी , मेरी आतम कथा पड़ने के लिए धन्यवाद . दरअसल इंसान कितना भी बूडा क्यों न हो जाये ,माँ कभी भूलती नहीं , सही लिखा आप ने ” आँचल में माँ के एक बार फिर से सो जाने दो “
भाईसाहब, आपका यह कहना सच है कि आत्म कथा लिखने में बहुत सोचना पड़ता है। सब कुछ सच सच लिखना ज़रूरी नहीं होता। हमने भी कई गलत काम किये होते हैं। उनके बारे में लिखना उचित नहीं। लेकिन कुछ भी झूठी बात नहीं लिखनी चाहिए।
विजय भाई , बचपन की यादें मन में तो बहुत दफा आती थीं लेकिन अब लिख रहा हूँ तो मन को एक सतुष्टि सी होती है . हर एक इंसान की जिंदगी में बचपन की हज़ारों घटनाएं होती है जो मीठी यादें ही होती हैं . हम ने किया बुरा किया किया अच्छा किया ,बात यह नहीं ,बात तो सिर्फ इमानदारी से कहने की होती है . कुछ बातें मैंने जान बूझ कर छोड़ दीं किओंकि इन से गलत फैह्मिआं हो सकती थीं ,वर्ना मैं लिखना तो चाहता था .
आपके बचपन के कारनामों के बारे में पढकर मज़ा आया। ऐसी इच्छायें सभी बच्चों में होती हैं। हम में भी थीं पर हमने बिना बताये कभी गाँव से बाहर पैर नहीं रखा।