गीत/नवगीत

हार गयी जीवन से

लोग दुनिया जीत लेते हैं ऊँचा उड़ते हैं गगन से,
मैं तो आज हार गयी हूँ अपने ही जीवन से।

टूट गये हैं सपने सारे अरमां बिखर गये,
वो उम्मीद और विश्वास भी जाने किधर गये,
उड़ने से पहले हौसले के पंख कतर गये,
ख्वाबों के आशियाँ वक्त की आँधी में उजड़ गये,
कैसे आयेगी खुशबू अब मेरे उजड़े हुए चमन से,
मैं तो आज हार गयी हूँ अपने ही जीवन से।

न जाने और कितना जिंदगी लेगी इम्तिहान,
मंजिल क्या दूर तक मुझे दिखती नहीं सोपान,
ये दिल भी आज जाने क्यों हो गया है बेजान,
बस बची है मुख पर एक झूठी सी मुस्कान,
यादें भी अब आँसू बनके निकलते हैं नयन से,
मैं तो आज हार गयी हूँ अपने ही जीवन से।

-दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।

4 thoughts on “हार गयी जीवन से

  • आप सब का बहुत बहुत धन्यवाद साहस देने के लिए ! आपलोगो से प्ररणा लेकर मैं अपनी अगली कविता नयी उम्मीद देनेवाली लिखी हूँ- ‘कोई और राह तलाश कर’

  • राज किशोर मिश्र 'राज'

    बहुत बढ़िया कविता , लेखनी मे निराशावाद का समन्वय उचित नही है/

  • विजय कुमार सिंघल

    कविता बहुत अच्छी है। पर निराशा भावना सही नहीं।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    कविता अच्छी लगी , यह तस्वीर एक टूट चुक्के इंसान की है , जिंदगी बहुत कुछ दिखाती है लेकिन there is always a light at the end of a tunnel.

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