साम वन्दना : व्यक्तित्व विभूषित
ओ३म् अञ्जते व्यञ्जते समञ्जते क्रतुं रिहन्ति मध्वाभ्यञ्जते|
सिन्धोरुच्छ्वासे पतयन्तमुक्षणं हिरण्यपावा: पशुमप्सु गृभ्णते|| साम ५६४ ||
तन मलिन वस्त्र मत अस्त व्यस्त, मन भी उदास मत तेरा हो|
व्यक्तित्व विभूषित पथ प्रशस्त, मन ज्योतिमान का चेरा हो||
रहना सञ्जित विमल विसञ्जित,
तुम सम्यक शोभित संसञ्जित,
माधुर्य बिखेरो सभी ओर
अभिमान रहित हो अभि सञ्जित|
जग देख प्रफुल्लित हो जाये, जीवन सौन्दर्य बसेरा हो|
व्यक्तित्व विभूषित पथ प्रशस्त, मन ज्योतिमान का चेरा हो||
बाहर जितना आकर्षण हो,
भीतर उतना संकर्षण हो,
कर्मों का मधुरिम स्वाद भरा
व्रत रत जीवन संकर्षण हो|
भीतर बाहर सुन्दरता हो, यज्ञों का श्वेत सवेरा हो|
व्यक्तित्व विभूषित पथ प्रशस्त, मन ज्योतिमान का चेरा हो||
ज्यों ही लेता तू प्रथम श्वास,
हो इच्छाओं का क्यों विकास,
पशु काम देव कर्मठता से
हो क्रोध नहीं तब आस पास|
गुण ज्योति प्राप्त कर प्रभु से तू, चमकीला किन्तु चितेरा हो|
व्यक्तित्व विभूषित पथ प्रशस्त, मन ज्योतिमान का चेरा हो||
— राजेन्द्र आर्य
उच्च कोटि की कविता !