संस्मरण

मेरी कहानी 57

हमारे इंटरमीडिएट के एग्जाम हो चुक्के थे और अच्छे नंबरों पर मैं, जीत और बहादर तीनों पास हो गए थे। अब हम बी ए में दाखल हो गए थे। बी ए में आते ही हमारा सोचने का ढंघ भी बदल गया था। वोह ही लड़के, वोह ही लड़किआं रोज़ देखने को मिलते थे और एक परिवार जैसा हो गया था। कालज में कोई प्रोफेसर ना आता या छुटी पर होता तो हम कालज के लान में बैठे रहते और यह समय होता था गप्पें हांकने का। लड़किओं की बातें करते, प्रोफेसरों की बातें करते और कभी कभी साथी लड़कों का मखौल उड़ाते। एक लड़का होता था जो र अक्षर को ग बोलता था। यह लड़का यों तो बहुत शरीफ होता था लेकिन मैं इस की मिमक्री हमेशा ही किया करता था। एक दिन बहुत से लड़के बैठे बातें कर रहे थे और लड़के ने कुछ बोला तो मैंने उस की मिमक्री कर दी और वोह उदास हो गया और कुछ झेंप सा गया। एक लड़का मुझ को बोला, “गुरमेल ! यार क्यों इन को तंग करता है?”. मैंने महौल को खुशगवार रखते हुए बोला, “यारो ! मैं इस को बार बार इसी लिए कहता हूँ कि जब कल इस की शादी होगी तो इनकी इस कमज़ोरी से इस की दुल्हन कहीं इसे छोड़ ना जाए कि उस का पति तो अच्छी तरह बोलता भी नहीं। कल यह मुझे बाजार में मिला तो मुझे कहने लगा, है तेगे की गुगमेल सिआंह, आ गईआं शैहग दीआं पग्सनैलेटीआं ( है तेरे की गुरमेल सिआंह आ गईआं शैहर दीआं पर्सनैलेटीआं )” . सभी जोर शोर से हंसने लगे और कहने लगे बाई गुरमेल सिआंह तुम्हारी बात तो सही है।

इस के बाद इस लड़के को मैंने बातें करके खूब हंसाया जिस से उस की रंजश दूर हो गई। अब आज मैं इस बात को सोच रहा हूँ कि कभी एक छोटी सी बात पर मैंने इस लड़के की मिमक्री की थी और आज मैं खुद ही बोलने से बेज़ार हूँ लेकिन उस वक्त तो यह जोक ही था। यहां मैं यह भी बता दूँ कि जीत के साथ से मैं और बहादर भी कॉमेडियन जैसे हो गए थे। बात बात पर साथिओं को हँसाते रहते जिस की वजह से हम दोस्तों में हरमन पियारे हो गए थे. जो भी लड़का हम को मिलता बहुत खुश हो कर बोलता। हमारे साथ एक और लड़का था जिस की बहन भी इसी कालज में पड़ती थी। दोनों बहन भाई रंग के बहुत गोरे थे। मुझे इस बात का पहले पता नहीं था कि यह दोनों बहन भाई थे। एक दिन लाइब्रेरी की गैलरी में हम दो दोसत बैठे थे और यह गोरा लड़का भी नज़दीक ही बैठा था। कुछ ही दूरी पर इस लड़के की बहन जा रही थी। इस लड़के की बहन के बारे में मैं कुछ बोलने ही लगा था कि मेरे दोस्त ने जल्दी से मेरा हाथ पकड़ कर घूंट दिया और मैं चुप हो गया। कुछ देर बाद जब यह गोरा लड़का चले गया तो मेरा दोस्त बोला, “यह इस लड़के की बहन थी अच्छा हुआ तू ने कुछ बोला नहीं वरना मुसीबत खड़ी हो जाती। “. सुन कर मैं सुन्न हो गया कि मैं तो वाल वाल बच गया था वरना पता नहीं किया होता। इस घटना से मैंने बहुत सीखा कि पहले तो किसी की बात ना करो, अगर करनी पड़ ही जाए तो सोच समझ कर बात करो ताकि बाद में पछताना न पड़े।

यह लाइब्रेरी कालज के हाल की दुसरी मंज़िल पर थी। कालज का हाल बहुत ही बड़ीआ होता था जो बहुत बड़ा था। ज़िंदगी में मैंने अभी तक कोई अखबार नहीं पड़ा था। इस कालज की लाइब्रेरी में ही मुझे अखबार पड़ने की आदत पड़ी। लाइब्रेरी में बहुत बड़ी बड़ी अल्मारीआं थी जिन को खोलने वाले पैनल शीशे के थे जिन में से बड़ी बड़ी किताबें दिखाई देती थीं। ज़िंदगी में पहली लाइब्रेरी मैंने अपने गाँव में ही देखि थी जो बहादर की कोठी के एक कमरे में होती थी। इस में पंजाबी की छोटी छोटी कहानिओं, कविताओं और नावलों की किताबें होती थीं। मुश्किल से सौ किताबें होंगी। सिर्फ दो किताबें घर ले जाने की इजाजत होती थी। यह कालज की लाएब्रेरी तो बहुत बड़ी थी और किताबें भी बहिुत मोटी मोटी होती थी। कभी कभी अलमारी से कोई किताब निकालते और पड़ने की कोशिश करते लेकिन हमारी दिलचस्पी कोई ख़ास नहीं होती थी। हाँ, अखबार पड़ने की आदत पड़ने लगी। पहले पहले तो कुछ समझ में ना आता, धीरे धीरे दिलचस्पी बढ़ने लगी ख़ास कर जब अखबार में कोई दिलचस्प बात होती। मैगज़ीन भी देखते, जिस में कहानीआं और लेख होते थे।

पंजाबी के नावलकार नानक सिंह जी एक मासिक मैगज़ीन छापते थे जिस का नाम था “लोक सहत “और इसी तरह एक मैगज़ीन होता था “प्रीत लड़ी “जो गुरबक्स सिंह निकालते थे और वोह गुरबक्स सिंह प्रीतलड़ी के नाम से ही जाने जाते थे। यह गुरबक्स सिंह पहले अमरीका में एक इन्ज्नीअर थे लेकिन भारत आ कर इन्होने यह प्रीत लड़ी मैगज़ीन छापना शुरू किया और बाद में इन्होने प्रीत नगर भी बसाया था जिस की कहानी भी बहुत दिलचस्प थी। गुरबक्स सिंह के बाद उन के सपुतर नवतेज सिंह जी इस प्रीत लड़ी के संपादक थे, अब नवतेज जी भी नहीं रहे, आगे शायद उन के लड़के चला रहे हैं। इसी तरह एक और मैगज़ीन होता था “आरसी “. इस का एडिटर कौन होता था मुझे याद नहीं। इन पतर्काओं की आदत ऐसी पड़ी की प्रीतलड़ी मैं यहां भी मंगवाता रहा जो बाई सी आता था और मेरे पास पौहंचने में एक महीना लग जाता था।

अक्सर सोचता हूँ कि जब हम बजुर्ग हो जाते हैं तो जवान बच्चों पर बहुत नज़र रखते हैं ताकि वोह कहीं भटक ना जाएँ और यह है भी सही है किओंकि उस जवानी के वक्त एक जोश होता है जो कभी कभी गलती करने को मजबूर कर देता है। इसी का नतीजा ही तो आज के युवा बच्चे बहुत गलत काम कर रहे हैं और इन पर इंटरनैट ने बलती पे तेल का काम किया है। उस समय भी गाँव में लड़के लड़किओं के प्रेम की बहुत कहानीआं सुनने को मिलती थीं. हम सभी दोसत भी लड़किओं की बातें अक्सर करते ही रहते थे। मुझे हारमोनियम और बांसुरी बजाने का बहुत शौक होता था। हमारे घर का फ्रंट रूम जिस को बैठक बोलते थे, वहां मैं अक्सर हारमोनियम और बांसरी बजाता रहता था लेकिन मैं दरवाजा बंद कर लेता था क्योंकि बैठक के आगे गली का रास्ता था और लोग अक्सर आते जाते रहते थे। फिर भी आवाज़ तो बाहर जाती ही थी। कभी कभी जब मैं घर के बाहर जाता तो एक लड़की जिस का नाम नहीं लूंगा मेरी तरफ देखती रहती थी लेकिन मैंने कभी उन को कुछ नहीं कहा या उस की तरफ देख कर मुस्कराया था लेकिन दिल में जरूर एक कशिश सी थी। उस लड़की का घर और हमारा घर कुछ ही दूरी पर थे और मकानो की छतों पर चढ़ कर यह फासला कोई पचीस तीस गज़ का ही होता था। एक दिन जब मैं अपने मकान की छत पर गया तो वोह लड़की भी आ गई और उस ने मेरी तरफ देख कर मुस्करा दिया। मैं कुछ डर सा गया क्योंकि गाँव में ऐसी बातें होना खतरे से खाली नहीं था क्योंकि ऐसी बातों से खून हो जाते थे। लड़की को बुलाना भी मौत को बुलाना होता था क्योंकि इससे लड़की की बदनामी हो जाती थी। आज जब मैं यह बातें लिख रहा हूँ तो मुझे बहुत हंसी आती है कि पुराना ज़माना भी कैसा ज़माना था।

मैं कुछ देर बाद फिर मकान की छत पर आया और वोह लड़की भी एक दम ऊपर आ गई जैसे मेरी ही इंतज़ार कर रही हो। दूर दूर तक मैं देखने लगा कि कोई मुझे देख ना रहा हो। उस लड़की में बहुत हौसला था लेकिन मैं डर रहा था। उस लड़की ने मेरी तरफ देख कर मुस्कराया और अपने माथे पर हाथ रख कर मुझे सैलिउट मारा। डरते डरते मैंने भी सैलिउट मार दिया लेकिन मैं दिल में काँप सा गया और छत से नीचे आ गया। मेरे मन को चैन नहीं आ रहा था। कुछ देर बाद मैं फिर छत पर आ गया और वोह भी आ गई। अब मैंने पहले सैलिउट मार दिया और इस का जवाब उस ने तुरंत दे दिया। बस अब तो मैंने जान लिया था कि बात बन गई थी। सारा दिन उस के बारे में ही सोचता रहा। फिर एक रात को वोह गली में आ गई। मैं भी आ गया। काफी अँधेरा था लेकिन जवानी की उम्र में तो अँधेरे में भी रौशनी दिखने लगती है। उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और मैं भी उस के नज़दीक आ गया। तभी कुछ खटाक सा हुआ और वोह एक दम भाग गई। ऐसे ही हम रोज़ छुप छुप कर मिलने लगे।

एक दिन माँ कहीं गई हुई थी और वोह लड़की घर ही आ गई। हम बैठक में आ कर बैठ गए और वोह बोलने लगी कि उस को मेरी बांसुरी बहुत अच्छी लगती थी। मुझे हैरानी होती है कि उस वक्त ऐसी सोच होती है कि कोई नहीं देख रहा लेकिन बहुत नज़रें देख रही होती हैं। आज तो वोह वक्त ही नहीं रहा। इसी तरह हम अक्सर मिलते रहे थे लेकिन हम ने सीमा नहीं पार की जिस से हमें पछताना पड़े। इस बात का पता पहले मेरी माँ को लग गया। एक दिन उस ने मुझे अपने पास बिठाया और समझाया कि मैं इस रास्ते पर ना जाऊं लेकिन मैंने इन बातों से इंकार कर दिया कि मैं कोई हरकत कर रहा था। फिर मैं एक दिन जब कालज से घर आया तो मेरी दो बाँसरीआं दादा जी ने फोड़ डालीं थी। एक दिन तो दादा जी मुझ पर बरस पड़े और बोले, “देख ! उस लड़की के भाई तेरा खून कर देंगे, तू हट जा और यह काम छोड़ दे “. मैंने दादा जी को कोई जवाब नहीं दिया।

यह कहानी ज़्यादा देर नहीं चली क्योंकि उस लड़की की शादी होने की ख़बरें आने लगीं। उस का घर के बाहर आना बहुत कम हो गया था। आज मुझे इस बात की समझ आती है कि वोह हमारे घर की और देखती रहती थी कि कब कोई घर में ना हो। शादी के कुछ दिन पहले वोह मुझे मिलने आई और मुझे एक रुमाल दिया और चले गई। यह हमारी आखरी मिलनी थी। इस कहानी को यहीं विराम लग गया। हम ने कोई गलत काम नहीं किया लेकिन सोचता हूँ कि लड़के लड़किओं में आकर्षण तो शुरू से ही होता रहा है लेकिन वोह समय पियार करने वालों के लिए बहुत खतरनाक होता था। इसी लिए ही तो हीर रांझा, सस्सी पुनु की कहानीआं आज भी हम सुनते हैं। आज तो सस्सी पुनु मोबाइल और स्काइप पर ही लगे रहते हैं। यह छोटी सी घटना को न लिखता तो कुछ मिस हो जाता।

मैं लिख चुक्का हूँ कि अखबार पड़ने की आदत मुझे कालज की लाइब्रेरी से ही पड़ी और खबर से दिलचस्पी हमेशा के लिए हो गई। वोह था रशियन ऑस्ट्रोनॉट यूरी गागारिन का स्पेस में जाना, यह शायद १९६१ था जब स्पेस से यूरी गागारिन की फोटो आईं। अखबार के फ्रंट पेज पर फोटो थी जिस में यूरी गागारिन अपने स्पेस कैप्स्यूल से बाहर आया हुआ था। कुछ मिनट ही गागारिन बाहर रहा था लेकिन उस ने इतहास रच दिया था। मैंने सारी खबर बड़े ध्यान से पड़ी। गागारिन १९६८ में जहाज़ क्रैश होने से मर गया था। एक और खबर उस वक्त बहुत आती थी बेल्जियम कौंगो की यहां सिविल वॉर चल रही थी जिस में गोरे लोगों को भी बहुत मारा गया था। आइजनहावर चाहता था कि यह देश अमरीका के धड़े में शामल हों क्योंकि उस वक्त कोल्ड वार शुरू हो गई थी। उस वक्त कांगो में बहुत बुरे हालात थे और वहां यू ऐन ओ ने अपनी फौजें भेजी थीं जिस में भारत से भी बहुत फौजी गए थे।

इस लाएब्रेरी में एक दिन एक लड़के ने एक खबर सुनाई। एक लड़के की शादी थी और वोह लड़का बगैर दान दहेज़ के शादी करवाना चाहता था, ना तो उस के अपने घर के लोग इस बात को मानते थे ना ही लड़की वाले मानते थे क्योंकि इस से लड़की वाले अपनी हतक समझते थे। दोनों तरफ से शादी की तैयारियां जोरो शोरों से चल रही थी। जिस दिन शादी थी उस दिन लड़का सुबह ही अपना बाइसिकल ले कर अपने सुसराल चले गया। जाते ही उस ने अपने ससुर को बोला कि वोह बगैर दान दहेज़ के शादी करना चाहता है। इस लिए उसी वक्त धार्मिक रसम पूरी करके उस की वाइफ को उस के साथ चलने के लिए कह दें वरना वोह घर नहीं जाएगा और शादी भी नहीं करायेगा। लड़की वाले मुसीबत में फंस गए कि किया करें। उन्होंने लड़के को बहुत समझाया लेकिन वोह माना नहीं। लड़की वालों का कोई रिश्तेदार आदमी प्रोफेसर था। उस के कहने पर लड़की वालों ने गुरदुआरे में जा कर उन दोनों की शादी कर दी। लड़के ने अपनी वाइफ को अपने बाइसिकल के पीछे बिठाया और अपनी वाइफ को घर ले आया। इधर लड़के के घर वाले उस को ढून्ढ रहे थे और इधर यह अपनी वाइफ को ले आया।

इस बात को लेकर हम बातें करने लगे कि जब हमारा वक्त आया तो हम भी वैसा ही करेंगे। कुछ महीने बाद एक लड़का जिस की शादी हो रही थी कुछ नहीं कर सका और उस की शादी धूम धाम से हुई। एक ने बहुत ही सादा शादी कराई और मेरा वक्त तो बहुत देर बाद १९६७ में आया और मैंने बगैर दान दहेज़ और दस ब्रातिओं के साथ शादी कराई। घर वालों को कुछ रंजिश थी लेकिन मेरे पिता जी ने मेरा साथ दिया और हमारी शादी हो गई। वोह जवानी के दिन ही थे, जो चाहा कर लिया और अब मैं समझता हूँ यह मेरी सोच ही थी क्योंकि उस समय कुछ ट्रैंड सा हुआ था की शादियां पे खर्च कम हो लेकिन अब तो ज़माना बहुत आगे निकल गया है। अब तो शादिओं पे कितना खर्च करते हैं कोई हिसाब ही नहीं बलकि कुछ लड़के वाले तो इसी आशा में रहते हैं कि उन को बहुत कुछ मिले। इन बातों को यही कहते हुए समापत करता हूँ कि हमारा भी ज़माना था।

चलता………

7 thoughts on “मेरी कहानी 57

  • Manoj Pandey

    आत्म कथ्य आसान नहीं होता। आपको लगता होगा कि आपकी कहानी पर मैं कोई टिप्पणी नही करता, शायद पढ़ता नहीं, पर यह सत्य नही है। जब फुर्सत होती है तो आपकी और सिंहल जी की जीवनी ही पढ़ता हूँ, पर क्योंकि कहानी अभी खतम नहीं हुई है इसलिए टिप्पणी नहीं करता। इतना अवश्य कहूँगा कि सरल भाषा में लिखी गयी आपबीती पढ़ने में रोचक है।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनोज जी , बहुत बहुत धन्यवाद . इस से पहले भी मैंने बहुत दफा अपनी जीवनी लिखने की कोशिश की थी लेकिन एक तो मुझे कोई तजुर्बा नहीं था ,दुसरे सच्चाई लिखने से डर लगता था कि पता नहीं लोग मुझे क्या समझें .विजय भाई को पड़ कर कुछ हौसला हुआ ,अब देखिये कहाँ तक जा पाता हूँ .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा भाईसाहब ! आपकी अधूरी प्रेमकथा पढकर अच्छा लगा। आपने किशोरावस्था की भावनाओं का अच्छा वर्णन किया है।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , बहुत बहुत धन्यवाद.

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपकी जीवन की हकीकत को पढ़कर अपने जीवन की कुछ मिलती जुलती बाते याद आ गई। क़िस्त बहुत अच्छी लगी। आपका हार्दिक धन्यवाद। अगली क़िस्त की प्रतीक्षा है।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , बहुत बहुत धन्यवाद .

    • विजय कुमार सिंघल

      मान्यवर, आप भी अपने जीवन की रोचक घटनाओं को हमारे साथ साझा कीजिए। जय विजय के मंच का पूरा उपयोग कीजिए।

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