तलवार- मन
क़लम की नोक से पैनी नहीं तलवार होती है
वतन के प्रेम की मैना यही अखवार होती है
सनम के आँख के आँसू विभावरि मे उमड़ते हैं
नहीं कोई दवा इसकी यही पतवार होती है
करो मन रब हवाले तुम- सज़ा कितनी रजा मे है
जिगर भी देख लूँ तेरा- अदा कैसी सज़ा मे है
शराफ़त देख माली की- सुमन हँसकर चली गुलशन,
भ्रमर सोचे कहाँ जाऊं – कली अपनी मज़ा मे है
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’
सुंदर रचना
आदरणीया जी आपकी आत्मीय पसंद , हौसला अफजाईके लिए तहेदिल से शुक्रिया , कोटिश आभार एवम् सादर नमन जय माँ शारदे==