कविता

कविता : उसने कब चाहा था

उसने कब चाहा था उन्मुक्त हो आकाश में उड़ना
वो तो बस खुली हवा में जरा सा पर फैलाना चाहती थी
उसने कब चाहा था
खेतो को अपना बनाना
वो तो बस चंद दाने चुन अपनी भूख मिटाना चाहती थी
उसने कब चाहा था
तुम्हारे पोखरों और तालाबो को बांध कर ले जाना
वो तो बस जरा से नीर से अपनी प्यास बुझाना चाहती थी
उसने कब चाहा था
पूरे पेंड़ पर अपनी धाक जमाना
वो तो बस डाली के एक कोने में अपना परिवार बसाना चाहती थी
उसने कब चाहा था तुम्हारे घर में शोर मचाना
वो तो बस अपनी मीठी तान से तुम्हे हर्षाना चाहती थी।
उसने कब चाहा था….

प्रिया मिश्रा