कविता
इस पूरे जीवन में हम सब,
रिश्ते तो बहुत बनाते हैं,
कुछ हमको फायदा देते हैं,
कुछ हमसे फायदा पाते हैं,
मजबूरी में फिर रिश्तों के,
व्यापार भी करने पड़ते हैं,
पसंद ना हों उन लोगों से,
व्यवहार भी करने पड़ते हैं,
ना चाहते हुए भी हम इनकी,
दलदल में धंसते जाते हैं,
अपने फेंके जाल में जैसे,
खुद ही फंसते जाते हैं,
तब ऐसे घुप्प अँधेरे में,
कोई रोशनी बनकर आता है,
सच्चाई से, अच्छाई से,
दिल को जो छू जाता है,
कुछ चंचल शोख हवाओं सा,
कुछ महकी हुई फिजाओं सा,
कभी धूप कभी साया तो कभी,
सावन की मस्त घटाओं सा,
माँ जैसा प्यार जताता है,
बाबा जैसे चिल्लाता है,
भाई की तरह बिना बात,
कभी हमको आँख दिखाता है,
क्या कह के पुकारें हम उसको,
इस रिश्ते का कोई नाम नहीं,
ये ऐसी कहानी है जिसका,
आगाज़ नहीं अंजाम नहीं,
दिल हो दिल के पास मगर,
मर्यादाओं की दूरी हो,
ऐसे रिश्तों का दुनिया में,
क्योंकर कोई नाम जरूरी हो,
बेनाम से ये रिश्ते तो बस,
मीठे एहसास से होते हैं,
थके हारे जीवन में पर,
राहत की साँस से होते हैं,
— भरत मल्होत्रा
अत्ती उतम विचार .