कहानी

अंगूठी

विनय ने तय किया था कि शादी तो वह माँ की पसंद से ही करेगा जबकि माँ चाहती थी कि वह अपनी पसंद से लड़की चुने और शादी करे ताकि उसका दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक बीते। मगर विनय की जिद के आगे वह खीझ कर रह जाती थी। अब इस उम्र में युवाओं के तौर-तरीके, पसंद-नापसंद कैसे समझें। लेकिन विनय को कैसे समझाएं, उसके साथ तो बार-बार बहस का नतीजा यही निकला कि अब उसने लड़की देखने से भी सख़्त मना कर दिया। निर्जरा के सामने अब विकट समस्या उत्पन्न हो गई। भला ऐसे-कैसे चलेगा। अगर बिना देखे शादी के लिए हाँ कग देगा और बाद में पसंद न आई तो क्या हो।

विनय ने अपने सभी दोस्तों की शादी से यही सीखा था कि शादी अपनी पसंद से करो, चाहें माता-पिता की पसंद से, रोना-धोना सब दम्पतियों का काम होता ही है। माता-पिता कि पसंद से शादी करने पर यह सहूलियत रहती है कि अपने हर झगड़े के लिए माता-पिता को दोषी ठहराते हुए अपनी भड़ास निकाल सकते हैं। परंतु अपनी पसंद से शादी करने पर बस घुट-घुट कर रह जाते हैं और यही सुनने को मिलता है “तुम्हीं ने तो पसंद की थी। तुम्हें ही शौक चर्राया था इसी से शादी का….तो अब भुगतो।“

वहीं दूसरी ओर निर्जरा अपनी अलग दुविधा में पिस रही थी। भला इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी अपने सिर पर कैसे ले? कहीं ऐसी-वैसी निकली तो अपने ही बेटे का जीवन जला देने का लांछन उठाना पड़ेगा। खुद से खुदखुशी करे तो खुशी से करे, किसने रोका है, सारी दुनिया तो कर ही रही है।

जब सब कर के हार गई तो निर्जरा ने भी ठान ली कि अब तो बेटे को उसकी जिद्द का सबक सिखा के रहेगी। उसने धडल्ले से लड़कियों की खोज शुरू कर दी। देर किस बात की थी यह पता लगते ही कि शादी के लिए लड़की चाहिए, पचासों स्रोतों से ढेरों रिश्तों की भरमार लग गई। हमारे समाज में यही तो एक काम है जो सबसे ज्यादा सामाजिक समझा जाता है और जिसमें सहयोग के लिए लोग हमेशा तत्पर रहते हैं। कुछेक तो इस मामले में इतने उत्साही होते हैं कि जीवन भर बस यही काम करते हैं कि किस की जोड़ी कहाँ मिला दें तो उनके पुण्य की पोटली और भारी हो जाए। ऐसे अवतारी लोगों के चलते शादी-ब्याह की बातें जंगल में आग की तरह फैल जाती हैं जैसा कि विनय की शादी में हुआ। सब रिश्तेदारों में यह बात फैल गई। अख़बार और इंटरनेट तक पर इस्तेहार दिए जा चुके थे।

जितने रिश्ते आते निर्जरा उतनी परेशान। विकल्पों ने सदैव मानव मन को सांत्वना देने की बजाय उलझाया ही है। निर्जरा भी उलझी हुई थी। एक बार तो उसके मन में आया कि सारे फोटो और बायोडाटा उठाके विनय के आगे पटक दे और कहे – “चुन ले कोई अपनी पसंद की और मेरे दिमाग की दही न कर।“ मगर निर्जरा ने मन ही मन ठान रखी थी कि वह विनय को दिखाकर ही रहेगी कि बेटा बेटा होता है और माँ माँ होती है।

धीरे-धीरे जैसे-जैसे रिश्तों की जाँच-पड़ताल करती रही निर्जरा की नज़र भी पारखी होती गई। अब उसे समझ में आने लगा कि किन रिश्तों को तो वह आँख बंद करके मना कर सकती है और किन रिश्तों को विचार करने के बाद मना कर सकती है और किन को वह गंभीरता से लेकर उन्हें हाथ से जाने से रोक सकती है। ऐसे ही कुछ अभ्यास के बाद उसने अपने मापदंड तय कर लिए। निर्जरा की मेहनत रंग लाई और उसे अपने मापदंडों पर खरी उतरने वाली एक लड़की मिल गई।

यह बात निर्जरा के लिए किसी सपने के सच होने से कम न थी क्योंकि वह अच्छी तरह से जानती थी कि विविधताओं से भरे इस संसार में कोई भी व्यक्ति आपको अपनी इच्छा के अनुरूप कभी नहीं मिल सकता। वह इतने वर्षों के अनुभव से इतना तो जान गई थी कि दो अलग इंसान जब साथ रहेंगे तो उन्हें बहुत सी ऐसी बातों का सामना करना पड़ेगा जो एक-दूसरे को नागवार गुजरे।

उसने विनय की अनुपस्थिति में ही घरवालों से नेहा के बारे में चर्चा कर ली और सबकी सम्मति पाकर निर्जरा को अपनी विजय होती हुई दिखाई दे रही थी। अब समय आ गया था कि वो विनय को उसके जिद्द का नतीजा घोषित करे।

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विनय अपने कमरे मैं जूते उतारकर मोजों को उनमें खोंस रहा था कि माँ ने कमरे में प्रवेश किया। बिस्तर पर बगल में बैठकर बोली –“बेटा! मैंने तो बहुत कोशिश की कि अपने लिए लड़की तू ही पसंद कर। खैर, जैसी तेरी इच्छा थी। लड़की मैंने पसंद कर ली है। उसके घरवालों से बात भी कर ली है। लड़की अच्छी है। मेरी पसंद के हिसाब से है। मेरी पसंद इसलिए कहा क्योंकि आजकल के लड़कों की पसंद के हिसाब से तो एकदम दुबली-पतली सींक सी लड़की चाहिए होती है। मुझसे तो देखा ही नहीं जाता कि ऐसी लड़कियाँ क्या हवा खाके जीती हैं। पता नहीं तुम्हारी ऐसी पसंद हो तो नहीं कह सकती लेकिन हमारे जमाने की तो हिरोइनों में भी दम होता था। उनकी तो खूबसूरती ही हरे-भरे होने में होती थी। मैंने भी वैसी ही हरी-भरी चुनी है। तुम हमेशा कहते थे कि मेरी पसंद से ही शादी करोगे तो अब यही मेरी पसंद है। तुम्हारे कहे के भरोसे पर मैंने उसके घरवालों से भी बात कर ली है। उन्हें भी कहना था कि एक बार तुमसे पूछ लिया जाए। पर बेटा तुमने तो गर्व से मेरा माथा ऊंचा कर रखा है। भला आज के ज़माने में ऐसा कौन सा बेटा होगा जो सीना ठोककर कह दे कि शादी करूँगा तो माँ कि पसंद से वरना नहीं, चाहें जैसी भी हो। बस इसी भरोसे पर मैंने भी वहाँ जुबान दे दी कि तुम मेरे कहे पर ही शादी करोगे और इसलिए एक हफ्ते बाद ही सगाई रखी है। उफ भगवान कितना काम है। तू भी अपनी तैयारी कर ले। लड़की तो तूझे देखनी नहीं है क्योंकि तूझे तो इंट्रस्ट ही नहीं है। चाहें जैसी भी हो। अब बेटा सब में सब कुछ तो मिलता नहीं थोड़ा कम-बेसी तो सब में होता है। और उसमें तो बेसी ही है कम नहीं है। थोड़ी गोलू-पोलू है तो क्या हुआ। कम से कम तू अपनी तैयारी अच्छी कर लेना। अच्छा जाती हूँ, दूध रखा है गैस पर।“

निर्जरा ने कमरे से बाहर निकलते समय एक बार मुड़कर विनय का चेहरा देखना ज़रूरी समझा। देखा तो विनय अपने आप में ही बुदबुदा रहा था – “हरी-भरी मतलब”। उसके चेहरे की उड़ी हुई हवाईंया निर्जरा को हंसने से रोक नहीं पा रही थी। निर्जरा किचन में जाकर हंसती चली जा रही थी। इतने में छुटकी ने किचन में प्रवेश किया। छुटकी ने माँ को हंसते हुए देख कर ही समझ लिया कि योजना सफल रही। फिर क्या था फटाफट खाना टेबल पर लगा कर छुटकी अगले हमले की तैयारी में बैठ गई। विनय ने खाना खत्म ही किया था कि छुटकी ने विनय की प्लेट में एक और रोटी डाल दी। “ये क्या है?” विनय उलझा हुआ तो पहले ही था अब झल्ला भी गया। पर छुटकी ने चुटकी ली। “खा लो भैय्या। थोड़ी और सेहत बना लो। भाभी आने वाली हैं। उनको उठाने के लिए दम तो चाहिए होगा।“

रमेश किचन की ओर मुख करके चिल्लाया –“माँ! माँ! देख रही है छुटकी को। इसे बोलो मेरे मुँह न लगे वरना पीट-पाट दूँगा। फिर रोती फिरेगी चारो तरफ।“ निर्जरा ने किचन से ही आवाज़ दी –“छुटकी उसे तंग मत कर।“ छुटकी विनय को जीभ दिखाती हुई मुँह बनाकर किचन में चली गई और विनय हाथ धोने वाश बेसिन की तरफ।

 

“अरे उसने खाना खाया या ऐसे ही उठकर चला गया।“

”नहीं माँ! खाना खा चुके थे तभी छेड़ा था। पहले छेड़ देती तो खाना ही नहीं खाते।“

”गुड। आगे-आगे देखती जा।“

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विनय भारतीय कानून की उस संहिता से बंध गया था जिसमें लिखा है “योर वर्ड्स शैल बी यूज़्ड अगेन्स्ट यू” या यूँ कहा जाए कि आप अपने कहे के गुलाम होते हैं। फिर भी विनय ने एक आखिरी कोशिश की कि उसके जीवन की यह दुर्घटना टल जाए। माँ से यह तो नहीं कह सकता कि लड़की पसंद नहीं है क्योंकि उसमें दो बातें आती हैं। पहली यह कि जिस लड़की को देखा तक नहीं उसे नापसंद कैसे किया और दूसरी यह कि जब माँ के कहे से ही शादी करने का निर्णय लिया था तो अब पलट क्यूँ रहा है। तो वह माँ से बोला –“माँ! इतनी जल्दी क्या है सगाई की? आराम से करते हैं न महीने दो महीने में।“

”बेटा! मैं तो इस इंतज़ार में बैठी थी कि तू ही कोई सुंदर सी बहू लाएगा। इसी चक्कर में पहले ही देर हो गई। अब और देर नहीं कर सकती।“

विनय चिढ़ गया। वो जानता है कि उसे ही लड़की ढूँढने का अधिकार और कर्तव्य सौंपा गया था। अपने कर्तव्य से पीछा छुडाने के चक्कर में वह अपने अधिकार से हाथ धो बैठा। मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि उसके ऊपर कुछ भी थोप दिया जाए। अब जब बात इतनी आगे बढ़ गई कि हफ्ते भर में सगाई होने वाली हो तो इस रिश्ते से पीछा छुड़ाना तो मुश्किल है मगर सगाई को आगे बढ़ा देने से कुछ युक्ति निकाली जा सकती है। सो उसने एक बार और कोशिश की –“वो तो ठीक है माँ। मगर आपको इतनी जल्दी-जल्दी में सबकुछ करना पड़ रहा है कि आप प्रेशर में आ जाओगी और यह मुझसे देखा नहीं जा रहा है।“

निर्जरा मन ही मन मुस्काई और सोचने लगी कि अच्छा बच्चू! अपनी गलती मानने की बजाय मुझे ही मुहरा बनाकर चाल चल रह रहा है। मैं भी तेरी माँ हूँ। देखती हूँ कैसे मुझे बहकाता है। निर्जरा ने झूठे गुस्से में तनकर कहा ताकि आगे चिरौरी की कोई गुंजाइश ही न बचे – “तू मेरी चिंता छोड़ अपनी तैयारी कर। मेरे लिए दो दिन भी काफी थे यहाँ तो एक हफ्ते की बात है।“ निर्जरा ने सोचा कहीं अति न हो जाए और विनय दबाव में आकर ऐन मौके पर कहीं चला न जाए। क्यों न अब भेद खोल ही दिया जाए। ज्यादा सताना भी अच्छा नहीं। वैसे भी सगाई की अच्छी तैयारी के लिए उसका मानसिक रूप से तैयार रहना ज़रूरी है। अत: निर्जरा उवाच “सामने ड्रावर में लड़की की तस्वीर रखी है। तू चाहे तो देख ले और कहने को तो कहना चाहिए की पसंद कर ले। मगर जब तूने खुद ही अपने लिए यह विकल्प नहीं छोड़ा तो फिर मैं क्या कहूँ।“ यह कहकर निर्जरा ने फिर उसी चोट पर हथौड़ा मारा जिससे विनय पहले ही घायल था।

विनय अपना सा मुँह लेकर चला गया। अब उसे यकीन हो गया था कि अब कुछ नहीं हो सकता। अब जब कुछ नहीं हो सकता तो फिर क्या! विनय ने भी किस्मत से समझौता कर लिया। उसने तस्वीर देखने की भी जहमत नहीं उठाई।

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अगले दिन सगाई है, सारी शॉपिंग आज खत्म कर घर लौटे हैं। ड्रेसिंग टेबल के एक छोर पर निर्जरा अपनी की हुई शापिंग को जाँच रही है। दूसरे छोर पर विनय निढाल पड़ा है। निर्जरा जानती है कि विनय ने तस्वीर नहीं देखी क्योंकि तस्वीर देखने के बाद की अपेक्षित चमक अब तक विनय के चेहरे से दूर है। निर्जरा से उसकी टाँग खींचे बगैर रहा नहीं जा रहा। उसने ब्लाउज का एक पीस दोनों हाथों में उठाते हुई छुटकी ओर घुमाकर पूछा “छुटकी! देख ज़रा! मैं जल्दी-जल्दी में ले आई। यह पीस तेरे भाभी के लिए छोटा तो नहीं पडेगा”।

छुटकी भी कम छुटकी न थी –“क्या करती हो माँ? इतना छोटा पीस भला उतनी मोटी….मेरा मतलब भाभी को कैसे आएगा?”

विनय को ये छोटी-छोटी बातें अब सुईंयों सी चुभने लगी। वह वहाँ एक पल भी रूकना नहीं चाहता था। उसने अपनी खरीदारी का सामना उठाया और अपने कमरे में जाने लगा कि निर्जरा ने टोका –“अरे सुन! यह भी लेता जा। मेरे ज़िम्मे बहुत सारी चीज़ें हैं देखने-भालने को। यह अंगूठी तूझे ही कल पहनानी है सो तू ही रख। सगाई की घच-पच में इधर-उधर हो गई तो मुश्किल होगी।“

विनय अपने बिस्तर पर चित्त होकर गिर पड़ा था। उसके बाईं तरफ ढेरों शॉपिंग बैग थे। क्या करना है देखकर। खरीदते वक्त तो सब चेक कर के ही लिया था। दाईं तरफ हाथ में अंग़ूठी का केस था। उसने यों ही केस खोल कर अंगूठी देखनी चाही। कितनी प्यारी सी छोटी से अंगूठी है। उसने केस से अंगूठी निकाल ली। देखते-देखते उसे लगने लगा अंगूठी कुछ ज्यादा ही छोटी नहीं है। उसने अंगूठी कानी ऊँगली में पहनी चाही मगर नहीं आई। अब वो उठकर बैठ गया। ऐसे कैसे? अंगूठी इतनी छोटी कैसे हो सकती है। उसने अपनी शर्ट से पेन निकाला और उसे अंगूठी पहनाई तो आ गई। विनय अब आश्चर्य में था। भला इतनी पतली ऊँगलियां किसी “हरी-भरी” की कैसी हो सकती हैं। अब तो विनय के लिए फोटो देखना लाज़मी हो गया। उसने इधर-उधर झांका और सबको काम में व्यस्त देख निर्जरा के ड्राअर से तस्वीर उडा ली।

विनय तस्वीर देखकर हैरान था। अरे यह तो नेहा है। जो मेरे साथ पढ़ चुकी है। कॉलेज के बाद इसने तो इंफोसेस ज़्वाइन कर लिया था। ओह! कितना बड़ा गधा था मैं। पहले ही क्यों नहीं तस्वीर लेकर देख ली। और हाँ इतनी पतली लड़की की तो इतनी पतली ऊँगलियां हो ही सकती हैं। मुझे इतनी अच्छी तरह से जानती है तभी तो बिना मिले ही हाँ कह दी वरना मैं भी सोचूँ कि भला लड़का बिना देखे कोई लड़की कैसे शादी के लिए राज़ी हो गई। अब विनय की हालत किसी बेचैन दूल्हे जैसी थी। उसने सारी रात लगा दी यह चेक करने में की जो-जो वो खरीदकर लाया है उसपर खिल रहा है या नहीं वरना नेहा क्या सोचेगी?

सुबह विनय के आँखों की शर्म और चेहरे की लाली देखकर निर्जरा जान गई कि विनय ने तस्वीर देख ली है और उसने विनय को काफी सबक सीखा लिया है; अब और नहीं सिखाना है।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com