बसंत..
पीली पीली सरसों हैं खेतों की चुनर पीली
पीले रंग की खुमारी चहुं ओर छा गयी।
सोने जैसा हो गया है हरे खेतो का बदन
मदहोशी नई सी फिज़ाओं मे समा गयी।
पाती पाती है उमंग, मन उडे जूं पतंग
भंवरो को कली की जवानी भरमा गयी।
गाने लगे प्रीत गीत लुभाने को मनमीत
रानी श्रृतुओं की लो बसंत रानी आ गयी॥
हवा गाती मल्हार झूमने लगे चिनार
आते ही बसंत पेडों पे रवानी आ गयी
बलखाती बेलें झूमे पेडों का बदन चूमें
मुरझाए तरुओं पे भी जवानी छा गयी
डोलने लगे पतंगे बगिया में यहां वहां
श्रृतु आस मन में मिलन की जगा गयी
धानी चुनरी मे सजी धजी निखरी सी धरा
आयी जो बसंत दुल्हनियां बना गयी॥
हर्षित जन हुए मन में चमन हुए
मुस्काते लबों पे अलग ही निखार है
झूमने लगी प्रकृति तृण तृण हुई रती
चहुं ओर झूमती बहार ही बहार है
अठखेली करती चली है नदी वेग लिये
लहरों की तरंगो में उमंगे असवार है
यूं ही आना महारानी बनके हमारे देश
तुम से बसंत जिन्दगानी में बहार है॥
सतीश बंसल
अच्छी कविता !
शुकगरिया विजय जी..
पाती पाती है उमंग, मन उडे जूं पतंग
भंवरो को कली की जवानी भरमा गयी। बहुत अच्छी पन्क्तिआन .
बहुत आभार आद. गुरमेल जी..