गीत : आओ, हम तुम इंसान बनें
आओ, हम तुम इंसान बनें
गैरों की बातों में आकर
क्या कुछ ना हमने गवाया है
हमने अपनी नादानी में
अपने घर को ही जलाया है
सर काटा भाई का हमने
बहनों की इज्जत लूटी है
ना जाने कितनी माँओं की
अंतिम आशा भी टूटी है
बहुत लड़े इक दूजे से
पर हाथ ना कुछ भी आया है
वो देखो सुबह का सूरज भी
पैगाम अमन का लाया है
आज चलो सब मिल जुल कर
भारत माँ की संतान बनें
आओ हम तुम इंसान बनें
वो पेड़ जो हमने लगाए थे
पड़ोस में जिनके साए थे
कँहा खो गई वो कहानियाँ
हर दिल में हैं परेशानियाँ
क्यों ना अब दिलों में वो प्यार है
ना माहौल खुशगवार है
आओ मिलकर खुशियाँ ढूढें
हर गम से अब अंजान बनें
आओ हम तुम इंसान बनें
क्यों दिखता है ऐसा मंज़र
हर शख्स के हाथ में है खंज़र
क्यों बेचैनी सी है मन में
क्यों शोला भड़का है तन में
ये कैसी रूत अब आई है
क्यों घोर निराशा छाई है
इस काले घने अँधेरे में
हम रोशनी का सामान बनें
आओ हम तुम इंसान बनें
— भरत मल्होत्रा
सुन्दर गीत !