गीत/नवगीत

गीत : आओ, हम तुम इंसान बनें

आओ, हम तुम इंसान बनें

गैरों की बातों में आकर
क्या कुछ ना हमने गवाया है
हमने अपनी नादानी में
अपने घर को ही जलाया है
सर काटा भाई का हमने
बहनों की इज्जत लूटी है
ना जाने कितनी माँओं की
अंतिम आशा भी टूटी है
बहुत लड़े इक दूजे से
पर हाथ ना कुछ भी आया है
वो देखो सुबह का सूरज भी
पैगाम अमन का लाया है
आज चलो सब मिल जुल कर
भारत माँ की संतान बनें

आओ हम तुम इंसान बनें

वो पेड़ जो हमने लगाए थे
पड़ोस में जिनके साए थे
कँहा खो गई वो कहानियाँ
हर दिल में हैं परेशानियाँ
क्यों ना अब दिलों में वो प्यार है
ना माहौल खुशगवार है
आओ मिलकर खुशियाँ ढूढें
हर गम से अब अंजान बनें

आओ हम तुम इंसान बनें

क्यों दिखता है ऐसा मंज़र
हर शख्स के हाथ में है खंज़र
क्यों बेचैनी सी है मन में
क्यों शोला भड़का है तन में
ये कैसी रूत अब आई है
क्यों घोर निराशा छाई है
इस काले घने अँधेरे में
हम रोशनी का सामान बनें

आओ हम तुम इंसान बनें

— भरत मल्होत्रा

*भरत मल्होत्रा

जन्म 17 अगस्त 1970 शिक्षा स्नातक, पेशे से व्यावसायी, मूल रूप से अमृतसर, पंजाब निवासी और वर्तमान में माया नगरी मुम्बई में निवास, कृति- ‘पहले ही चर्चे हैं जमाने में’ (पहला स्वतंत्र संग्रह), विविध- देश व विदेश (कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं व कुछ साझा संग्रहों में रचनायें प्रकाशित, मुख्यतः गजल लेखन में रुचि के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय, सम्पर्क- डी-702, वृन्दावन बिल्डिंग, पवार पब्लिक स्कूल के पास, पिंसुर जिमखाना, कांदिवली (वेस्ट) मुम्बई-400067 मो. 9820145107 ईमेल- rajivmalhotra73@gmail.com

One thought on “गीत : आओ, हम तुम इंसान बनें

  • विजय कुमार सिंघल

    सुन्दर गीत !

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