आगामी बजट में आयकर नीति
सुनते हैं कि माननीय वित्त मंत्री आयकर छूट की सीमा २.५ लाख से ३ लाख करने जा रहे हैं। इसका मतलब यही हुआ कि वे अपने मन की ही करेंगे। हालाँकि, उनके अपने सांसदों की मांग ४ लाख की थी और उनकी खुद की मांग, जब वे विपक्ष को सुशोभित कर रहे थे, ५ लाख की हुआ करती थी।
हकीकत यह है कि किसी हलकट बनिये की तरह ही सोचती है ये सरकार। मुर्दे से भी ब्याज वसूलना चाहती है। बढ़ती मँहगाई के मद्देनज़र, ५००००/- की छूट मात्र झुनझुने से ज़्यादा कुछ नहीं है। जब खाने के बाद कुछ बचेगा ही नहीं तो क्या बचत करो और क्या टैक्स दो?
किसी भी अर्थतंत्र को टिकाऊ और प्रगतिशील बनाने के लिये समुचित आय और व्यय का होना आवश्यक है । बिना आम बचत के अर्थतंत्र निरर्थक हो जाता है क्योंकि बचत द्वारा जमा की गयी पूँजी ही तमाम विकास परक योजनाओं का आधार बनती है। व्यय द्वारा ही उत्पादित वस्तुओं का उपभोग होता है जिससे हमारे उद्योगों की सार्थकता बनती है। उद्योगों की लाभप्रदता बढ़ने से उनके आयाम को बढ़ाने की इच्छा बढ़ती है जिससे रोज़गार के नये नये अवसर उतपन्न होते हैं। रोज़गार बढने से पुनः बचत और व्यय बढ़ने के आसार बढ़ते हैं। यही आर्थिक चक्र कहलाता है।
मौजूदा हालात में सुस्त अर्थतंत्र को गति देने के लिये बचत और खर्च दोनों ही ज़रूरी हैं और जो एक सुलझी हुई और मुक्त कर नीति द्वारा ही संभव है। ऱोज़मर्रा की ज़रूरतों से कोई उबरेगा तभी बचत कर पाएगा, तभी कुछ टैक्स देगा ! अपनी जाती ज़रूरतों पर तो हर हाल में खर्च होता है पर इससे उद्योगों को लाभ नहीं मिलता। मात्र सरकारी बाबुओं की तनख्वाह बढ़ाने से अगर वित्त मंत्री सोचते हैं कि देश की व्यय करने की क्षमता बढ़ गयी है, और इस प्रकार उनकी जमा करने और टैक्स देने की क्षमता भी बढ़ गयी है तो यह सही नहीं है। उपरोक्त स्थिति में होगा यह कि बढ़ी हुई आय का बहुत बड़ा हिस्सा तो बचत (टैक्स बचाने की मजबूरी के तहत) या टैक्स की भेंट चढ़ जाएग, और व्यय वहीं का वहीं रहेगा। अब अगर व्यय नहीं बढ़ता है तो उत्पादित वस्तुओं की खपत कैसे बढ़ेगी, बाज़ार में पैसा कहाँ से आएगा, और उद्योगों की लाभप्रदता कैसे बढ़ेगी। अगर उद्योग लाभप्रद न हुए तो निवेश भी रुक जाएगा और बचत की हुई रकम की मांग नहीं बनेगी। यही आगे चल कर बैंको पर असर लाएगी।
हकीकत में हो भी यही रहा है और जिसका सुबूत हमारे गिरते हुए शेयर बाज़ार हैं, जो निवेशकों के, सरकार की आर्थिक नितियों में, अविश्वास को बखूबी दर्शा रहे हैं। वित्त मंत्री द्वारा बार बार जो यह कहा जा रहा है की हमारी अर्थ व्यवस्था बहुत मजबूत है, इस पर अगर विश्वास किया भी जाय तो कैसे! उत्पादकता का स्तर दिनो-दिन गिरता जा रहा है, बैंकों की हालत खराब होती जा रही है, रोज़गार के आंकड़े सरकार जारी ही नहीं करती, करों में कमी के बजाए बढ़ोत्तरी के संकेत हैं जो यह दर्शाते हैं कि सरकार के पास योजनाओं के लिये पर्याप्त धन नहीं है, आय के श्रोत सूख रहें हैं पर खर्चों में कोई कमी दिखायी नहीं देती।
हमारा सामाजिक ढाँचा कुछ एेसा है कि इसके अर्थतंत्र को अभी और कई दशकों तक सरकारी सहायता देनी होगी और इसीलिये हम चाह कर भी पूँजीवादी सोच नहीं अपना सकते। शायद इसीलिये समाजवादी नीति को हमारे संविधान में महत्व व स्थान दिया गया है ताकी योजनाएँ बनाते समय हमारी सरकारें पूँजीपतियों के बहकावे में आकर देश के औसतन ६०% गरीबों की अनदेखी न करने लगें। मेरी अपनी राय में बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटी आदि कुछ ऐसी ही परिकल्पनाएँ हैं जो तन पर सूट, बूट और टाई लगाने का उपक्रम तो हो सकती हैं, पर किसी का पेट नहीं भरेंगी, अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था सुनिश्चित नहीं करेंगी, समाज के गरीब तबके का सर्वांगीण उत्थान नहीं करेंगी। तब जब की देश में संसाधनो का आभाव है, हमें अनावश्यक परिकल्पनाओं से बचना चाहिये और उसे लोगों की आर्थिक स्थिति का सुधार करने में लगाना चाहिये। जिस दिन देश आर्थिक रूप से सक्षम हो जाएगा, वो अपनी बुलेट ट्रेन का स्वयं निर्माण कर लेगा। उसे किसी जापान या चीन की सहायता नहीं लेनी पड़ेगी।
शेयर बाजार देश की अर्थव्यवस्था का सही आईना नहीं होता।
शेयर बाजार देश की अर्थव्यवस्था का सही आईना नहीं होता।
जिस दिन देश आर्थिक रूप से सक्षम हो जाएगा, वो अपनी बुलेट ट्रेन का स्वयं निर्माण कर लेगा। उसे किसी जापान या चीन की सहायता नहीं लेनी पड़ेगी। सही बात .
मोदी जी इसी साधना में लगे हैं भाई साहब !
मोदी जी इसी साधना में लगे हैं भाई साहब !