गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

किसलिये   माहौल   ये   तपने  लगा  है दोस्तों,
कौन  शोलों  पर   हवा   करने  लगा  है दोस्तों।

किस सियासत की ग़र्ज़ है ये हिमायत आग की,
आँच में  जिसकी,  शहर  जलने लगा  है दोस्तों।

इस  कदर  बेबाक  हो  बैठे  हैं लतेवर  शहर के,
मुस्कराने  से   भी   डर   लगने  लगा  है दोस्तों।

कल तलक खामोश थे  जो लोग बातिल हो उठे,
रहनुमाई   का  असर    दिखने   लगा  है दोस्तों।

हाथ  में   कानून   ले  कर   घूमता   है   आदमी,
और   गुस्सा  नाक   पर   धरने   लगा  है दोस्तों।

खो  गए   जाने  कहाँ  मा’नी  हया -ओ- शर्म के,
था  जिसे  झुकना,  वो सर उठने लगा  है दोस्तों।

‘होश’  कैसा सूर्य है  जिससे,  उजालों की जगह,
क़द  अंधेरों  का  ही  कुछ  बढ़ने लगा  है दोस्तों।

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

9 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    उत्तम ग़ज़ल !

  • विजय कुमार सिंघल

    उत्तम ग़ज़ल !

    • मनोज पाण्डेय 'होश'

      धन्यवादजी

  • लीला तिवानी

    प्रिय मनोज भाई जी, अच्छी ग़ज़ल. बातिल शब्द बहुत अच्छा लगा.

    • मनोज पाण्डेय 'होश'

      धन्यवाद

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    खूब .

    • मनोज पाण्डेय 'होश'

      धन्यवाद।

  • अरुण निषाद

    Sundar

    • मनोज पाण्डेय 'होश'

      धन्यवाद।

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