कविता

पूर्व जन्म का रहस्य

धूप से बचने को खड़ा था

एक बरगद की छाँव में

घूम कर देखा तो खड़ा था

विशाल पादप पाँव में

 

देखते ही देखते मेरे मन में

उठा एक बेतुका सवाल

“देखे होंगे जाने कितने….

…जाने कितने सारे साल”

 

इतने में बरगद ही

मुँह खोल बोल पड़ा

“दस शताब्दी से

मैं इसी जगह हूँ खड़ा”

 

यह सुन मेरी बुद्धि

कुछ-कुछ चकरा गई

मगर बरगद ने तो

सुस्त सी अंगड़ाई ली

 

अचल अविचल अटल

यहाँ यह खड़ा है।

जबकि यह ज़माना तो

कहाँ से कहाँ बढ़ा है

 

मैं उत्सुकता अपनी

रोक ही न पाया

मानस के प्रश्न को

तत्काल उसे सुनाया

 

“मैंने वो दुनिया

नहीं देखी बूढे काका

जिसे तुमने इन पत्तियों से

कई बार झाँका

 

कुछ हाल हमें सुनाओ

प्रेमियों का पुराना

जब साधु संतों का

था यह ज़माना”

 

“प्रेम वही, प्रेमी बदले

प्रीत वही, नई रीत चले

वो भी भले थे, ये भी भले

बिन प्रेम यौवन कब ढले

 

वह आता गोरी के देश में

आता मिलने साधु-वेष में

लगाता प्रिया के केश में

पूजा के फूल, जोगी भेष में

 

हाथ कमंडल, छटा निराली

पहने माला फूलोंवाली

आया मनाने रुठी बाला

धर कर रूप जोगियों वाला

 

घर-घर घूमा और गली-गली

मन की मुरलिया मिली नहीं

आस सी मन में बँधी रही

कहाँ गई वह, कहाँ गई

 

वह उसके द्वार पर खड़ा रहा

“भिक्षा-भिक्षा कई बार कहा

प्रेम के कारण सबकुछ सहा

वह भिक्षा-भिक्षा कहता रहा

 

वह सोती रही द्वार के भीतर

अँखियाँ मीचे, स्वप्न थे सुंदर

सुन चिर-परिचित से वे स्वर

भागी आया प्रेमी जानकर

 

खोलकर द्वार वह निराश हुई

जाती रही जो आस हुई

जोगी की खत्म तलाश हुई

लेकिन वह मुरझाई पलाश हुई

 

लाई भरकर दाने से दोना

एक हँसे, एक को आए रोना

मिल गई आँखे, मिलन था होना

छूटा कमंडल, गिर गया दोना

 

पहचान गई वह प्रेम का रोगी

जोगी नहीं, वह नहीं है जोगी

“अब तो ये गुस्सा थूकोगी

फिर वट तले आ मिलोगी”

 

“नहीं-नहीं” कह मन मुस्काई

भीतर जा, किवाड लगाई

प्रेमी का स्वर दिया सुनाई

“क्यों करती हो अब भी लड़ाई

 

प्रेम की भिक्षा माँग रहा हूँ

ख़ाक गली की छान रहा हूँ

तेरा मर्म न जान रहा हूँ

देव बिन देवस्थान रहा हूँ”

 

किवाड के पीछे फुसफुसाई

“पहर रात हो गए अढाई

बरगद की हो परछाई

मानो प्रियतमा मिलने आई”

 

ठीक उसी क्षण उसी पल

गली से रहा था कोई निकल

अँधकार में था वह ओझल

देख न पाया प्रेमी-पागल

 

मिलन के संदेश रुपहले

ले प्रेमी का हृदय चले

आया उसी बरगद तले

मिलन-वेला से कहीं पहले

 

अँधियारी वह रात्र थी

प्रेमी संग आशाएं मात्र थीं

रजनी की कालिमा छात्र थी

स्नेह अब मिलन के पात्र थी

 

घनघोर अँधेरे से निकल

सामने आई प्रेमिका विकल

ढूँढते उसके नयन चंचल

तभी आभास करती बाहुबल

 

मुड़कर जुड़ी उसी वक्षस्थल से

धोती वक्ष-केश अश्रुजल से

करती स्नेहाभास उस बाहुबल से

अब मिला जो माँगा प्रतिपल से

 

सो रहा था जब जग

मतांधो के हाथ लग

चमक उठी मतांध खड्ग

अंतर नहीं मानव या खग

 

रक्त-पिपासा युक्त तलवार

करने आई युगल पर वार

एक ओर घनघोर अंधियार

तिस पर जग का अत्याचार

 

अश्रु सिंचित वक्ष-केश

के भीतर हुआ आवेश

दूसरी ओर गहरा द्वेष

फूट पड़ा मतों का क्लेश

 

प्रेम न रहा अब छुप

सामाजिक ठेकेदार नहीं चुप

फिर वही अँधेर घुप्प”

इतना कह बरगद चुप

 

“यूँ चुप न रहो

क्या हुआ आगे बताओ

यूँ बीच में न छोड़ो

किस्सा यह पूरा सुनाओ”

 

“अभी तू है जहाँ खड़ा

युगल शव है वहाँ गड़ा”

यह सुन मैं उछल पड़ा

दूर छिटकर हुआ खड़ा

 

स्तब्ध मैं रहा कुछ देर

देख कलियुग का अँधेर

नीचे दो लाशों का ढेर

ऊपर दुनिया है आँखे फेर

 

इतने में बोला वह आगे

बुनते हुए कथा के धागे

“तू सोता है या है जागे

नहीं सुनेगा क्या तू आगे”

 

मैं बोला बरगद सयाने को

“अब क्या है बताने को

देख लिया उस ज़माने को

बचा क्या अब सुनाने को”

 

“तोड़े क्यों कहानी के धागे

क्यों तू यहाँ से सरपट भागे

कथा बहुत है अभी भी आगे

पूरी कथा तो सुनता जा रे”

 

मैं हुआ आश्चर्यचकित

देखकर बरगद वह थकित

खड़ा सदियों से लोकहित

नयन मेरे अश्रु से पूरित

 

“यहाँ से कुछ दूर

एक कालेज है मशहूर

दो प्रेमी प्रेम से मजबूर

एक दूसरे को रहे घूर

 

कालेज हो या बाज़ार-शहर

रेस्तरां या सिनेमाघर

साथ-साथ आते नज़र

चल रहे प्रेम की डगर

 

किसी की नज़रें जा पड़ी

उसकी प्रेमिका पर जा गड़ी

कुछ अभिलाषाएं हुई खड़ी

इस जोड़ी से जलन बढी

 

अपनी जलन मिटाने को

प्रेमिका को अपनाने को

प्रेमी से उसे छुड़ाने को

गया कुछ गुंडे लाने को

 

दोनो ने लिया निर्णय

छोडेंगे यह संसार मय

मिटा जाति-पांति का भय

अपनाएंगे प्रेम-प्रणय

 

उस दिन यहीं पर

छोड़कर अपना घर

थका वह इंतजार कर

आई नहीं वह मगर

 

लेकर अपना सामान

खड़ा था खड़े कर कान

एक खतरे से अंजान

राह पर लगाए ध्यान

 

तभी पहुँच गए गुंडे

छ:-सात थे मुस्टंडे

चारो ओर से पड़े डंडे

दिल जले जैसे सरकंडे

 

नहीं किसी को सहानुभूति

जो तोड़ी समाज की रीति

प्रेम हारा, मतांधता जीती

कब तक यूँ हारेगी प्रीति

 

तभी वहाँ पर प्रेमिका आई

प्रेम की सबसे गुहार लगाई

किसी को नहीं दिया सुनाई

तो….

तो…

मुझ से रस्सी लटकाई

 

यह जो जटा देती है दिखाई

उसने वहीं पर फाँसी लगाई

दो आत्माएं परस्पर समाई

क्रूर संसार से फिर मुक्ति पाई”

 

मन दुखी यह सोचकर है

दोनो जन्मों में क्या अंतर है

कितना भी यह प्रेम प्रखर है

दुनिया पर नहीं कोई असर है

*****

*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल [email protected]

2 thoughts on “पूर्व जन्म का रहस्य

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

    • नीतू सिंह

      शुक्रिया

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