गीत : वह समझता मुझको रहा
वह समझता मुझको रहा, मैं झाँकता उसको रहा;
वह नहीं कुछ है कह रहा, मैं बोलता उससे रहा !
अद्भुत छवि आलोक रवि, अन्दर समेटे वह हुआ;
नयनों से लख वह सब रहा, स्मित वदन बस कह रहा !
हाथों पुलक पद प्रसारण, भौंहों से करता निवारण;
भृकुटी पलट ग्रीवा उलट, वह द्रश्य हर जाता झपक !
आनन्द हर क्रन्दन दिए, किलकारियों में जग लिए;
सम्बंध गहरे गढ़ रहा, बन्धन में विधिवत ले रहा !
साधे वो श्वाँसों को रहा, वह निर्निमेषे लख रहा;
‘मधु’ मन चमन महका रहा, प्रभु रूप शिशु दिखला रहा !
— गोपाल बघेल ‘मधु’