लघुकथा

लघुकथा : माँ

मैंने रेड सिग्नल पर अपनी स्कूटर रोकी . ये सिग्नल सरकारी हॉस्पिटल के पास था . उस जगह हमेशा बहुत भीड़ रहती थी. मरीज , बीमार, उनके रिश्तेदार और भी हर किस्म के लोगों की भीड़ हमेशा वहां रहती थी.

अब चूँकि सरकारी हॉस्पिटल था तो गरीब लोग ही वहां ज्यादा दिखाई देते थे. अमीर किसी और महंगे हॉस्पिटल में जाते थे. इस संसार में गरीब होना ही सबसे बड़ी बीमारी है . ऊपर से यदि कोई भयानक शारीरिक रोग लग गया हो तो , क्या कहना , जैसे कोढ़ में खाज !

मेरे लिए ये रोज का ही दृश्य था. मैं बड़ा संवेदिनशील व्यक्ति था और मुझे ये दृश्य पसंद नहीं था, पर क्या करू और कोई रास्ता भी नही था ऑफिस की ओर जाने के लिए. स्कूटर बंद करके मैंने अनमने भाव से हॉस्पिटल की तरफ देखा. वही भीड़, वही रोना , वही कराहना !

मैंने देख ही रहा था कि एक औरत के जोर जोर से हंसने की आवाज़ आई , मैंने उस ओर देखा तो एक बूढी सी औरत जोर जोर से हंस रही थी. वो गरीब तो नहीं लग रही थी. मुझे कुछ अजीब सा लगा . फिर वो रोने लगी . मैंने अपना स्कूटर उसकी तरफ मोड़ा और उसके पास जाकर रुका .

मैंने पुछा , “माई क्या हुआ है . कुछ मदद चाहिए इलाज के लिए , क्या हुआ . बताओ तो सही .”

कुछ लोग और भी जमा हो गए थे . अपने देश में तमाशाई बड़े जल्दी जमा हो जाते है.

उस बूढी औरत ने कुछ नहीं कहा , वो रोते रोते चुप हो गयी , मैंने अपनी पानी की बोटल दी .उसे पीने को कहा. उसने भरी हुई आँखों से मुझे देखा और पानी पीने लगी .

वो थोडा शांत हुई तो मैंने फिर से पुछा , “क्या हुआ माई , हॉस्पिटल के लिए कोई मदद चाहिए . बोलिए तो. कुछ रुपया दे दूं. आपके साथ कोई नहीं है क्या. बच्चे कहाँ है ?”

उसने कहा , “यहाँ कोई नहीं है बेटा. जब मेरे बच्चे छोटे थे तब, आपस में , मेरी माँ – मेरी माँ कह कर लड़ा करते थे… आज जब वो बड़े हो गए है तो तेरी माँ – तेरी माँ कहकर लड़ते है और आज उन्होंने हमेशा के लिए यहाँ छोड़ दिया है . बचपन में मैं जब एक को संभालती थी, तो दूसरा भी आ जाता था , कहता था माँ मुझे भी संभालो और आज जब मेरी तबियत ख़राब हो गयी है तो आपस में कहते है, तू संभाल , तेरी भी तो माँ है . अब मैं यहाँ हूँ. अकेली, सब है, पर कोई नहीं . मैंने जिन्हें संभालकर बड़ा किया है आज उनके पास मुझे संभालने के लिए न समय है और न ही प्यार बचा हुआ है ”

मैं स्तब्ध था . आसपास की भीड़ चुप थी और अब अपने अपने काम के लिए वापस जा रही थी. तमाशा ख़त्म हो गया था. अपने देश में तो ऐसा ही होता है .

मैं व्यथित था. मेरा मन भी भर आया था. मैंने धीरे से कहा, “माई , बात सिर्फ प्यार और मोह की होती है , वो है तो सब है, वरना कुछ भी नहीं ! “

उस बूढी औरत ने फिर कहा , “मेरा कसूर क्या है , सिर्फ यही कि मैं अब बूढी हो चुकी हूँ और मैं बीमार हूँ , बचपन का मेरी माँ अब तेरी माँ में बदल चुका है. लेकिन फिर भी माँ हूँ, मेरा क्या है , आज हूँ और कल नहीं हूँ. वो जहाँ रहे खुश रहे .”

मैंने भरी हुई आँखों से उसके हाथ में कुछ रुपये रखे और चल पड़ा.

माँ पीछे ही रह गयी. अकेली !

One thought on “लघुकथा : माँ

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी लघुकथा। यह आज के समाज का आईना है।

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