स्त्री
स्त्री (विश्व महिला दिवस विशेष)
स्त्री हूँ मैं हाँ स्त्री,
स्त्री ही मुझको रहने दो।
पावन पुण्य धरा पर मुझको
प्रेम की कोंपल बोने दो।
खतरे में अस्तित्व है मेरा
यूँ विलुप्त ना होने दो।
दांव मुझे रख एक बार फिर
चीरहरण मत होने दो।
दुष्टों के संहार की ख़ातिर
कालरात्रि सम होने दो।
कर बैठूँ विद्रोह स्वयं से
इतनी तपिश न होने दो।
बहुत त्याग बलिदान किये,
अब और मुझे ना रोने दो।
पौरुष अहम् की तुष्टि पर
सम्मान मेरा ना खोने दो।
जकड़ के मर्यादा की बेड़ी
दम मेरा ना घुटने दो।
उर भीतर बसने वाले
शीतल झरने को बहने दो
खुद धिक्कार उठे मन तेरा
यूँ कलुषित ना होने दो।
अंधियारे उर के अक्षय का
अमिट उजाला होने दो।
बन संगिनी चलूँ संग तेरे
कदमताल इक होने दो।
नर और नारी की परिभाषा
समदर्शी सी होने दो।
पूनम पाठक”पलक”
बहुत खूब, पूनम जी !
बहुत बहुत आभार विजय सर
बहुत बढ़िया रचना
बहुत शुक्रिया विभा रानी जी