ग़ज़ल : गंगा नहाने आ गए
पाप गठरी सिर धरे, गंगा नहाने आ गए।
सौ जनम का मैल, सलिला में मिलाने आ गए।
ये छिपे रुस्तम कहाते, देश के हैं सभ्य जन
पीढ़ियों को तारने, माँ को मनाने आ गए।
मन चढ़ी कालिख, वसन तन धर धवल, बगुले भगत
मंदिरों में राम धुन के, गीत गाने आ गए।
रक्त से निर्दोष के, घर बाग सींचे उम्र भर
रामनामी ओढ़ अब, छींटे छुड़ाने आ गए।
चंद सिक्कों के लिए, बेचा किए अपना ज़मीर
चंद सिक्के भीख दे, दानी कहाने आ गए।
लूटकर धन धान्य, घट भरते रहे ताज़िन्दगी
गंग तीरे धर्म का, लंगर चलाने आ गए।
इन परम पाखंडियों को, दो सुमति भागीरथी
दोष अर्पण कर तुम्हें, जो मोक्ष पाने आ गए।
— कल्पना रामानी
बहुत बहुत धन्यवाद आ॰ सिंघल जी
बहुत शानदार ग़ज़ल !
चंद सिक्कों के लिए, बेचा किए अपना ज़मीर
चंद सिक्के भीख दे, दानी कहाने आ गए।
वाह वाह !