लघुकथा – अनुभूतियाँ
-ओह !तो तू इस मकान में रहती है?
-इसे मकान न कहो—यह तो मेरा घर है। इसमें मुझे आराम मिलता है। अपनापन महसूस होता है। हर चीज मुझे प्यार करती नजर आती है।
-ऊँह, बेजान का तो बेजान प्यार ही हुआ। न तेरे यहाँ चहल-पहल। न शोर शराबा। तू तो यहाँ अकेली है। बिलकुल अकेली। न जाने कैसे अकेली रह लेती है।
-अकेली हूँ पर अकेलापन कभी नहीं लगता। मेरे साथ मेरी किताबें है। बोलती हैं तो घंटों उनकी आवाज मेरे कानों को सुनाई देती रहती है। ये किताबें देख रही है इनकी मैंने रचना की है। जिस तरह से माँ अपने बच्चे को जन्म देती है फिर उसको साज-संवार कर बड़ा करती है उसी तरह से मैंने इसकी कहानियों को जन्म दिया है। बड़ी मेहनत से काँट छाँटकर इन्हें किताब में जड़ दिया है। न ही ये छोडकर जाना चाहती हैं और न ही मैं इन्हें छोड़ सकती। दुनिया के किसी कोने में चली जाएँ पर संबंध तो मेरे से रहेगा ही। अब तू ही बता संतान के होते हुए माँ कभी अकेली रही है।
वह परछाईं की तरह तुरंत अदृश्य हो गई क्योंकि वह खुद एक माँ थी और माँ-माँ की अनुभूतियाँ एकाकार हो उठीं।
— सुधा भार्गव