मेरी कहानी 113
वाल्साल गैरेज से ट्रांसफर होने के बाद पार्क लेन गैरेज में काम शुरू कर दिया था. कुछ महीनों के बाद ही मुझे नई कंडक्ट्रेस मिल गई। यह एक वैस्ट इंडियन औरत थी और इस का पति भी इसी गैरेज में ड्राइवर था। इस कंडक्ट्रेस का नाम था मिसज़ कौलीमोर। इस का सुभाव ऐसा था कि ज़्यादा बोलती नहीं थी और उस की इस बात से मुझे परेशानी होती थी, इस के विपरीत इस का पति बहुत हंसमुख था और धर्मी था, चर्च हर रविवार जाता था, जब कभी मिलता, बहुत खुश हो कर बोलता था। मुझे यह कभी समझ नहीं आई कि वोह आपस में इकठे काम क्यों नहीं करते थे। आम रिवाज़ उस वक्त यही होता था कि जो टिकटों और मशीन वाला बॉक्स होता था, उस को ड्राइवर ही ले कर चलता था और औरत को उठाने नहीं देते थे, यह एक किसम की औरत की इज़त करने जैसा ही होता था। मैंने उस को खुश करने की बहुत कोशिश की लेकिन मुझे दो तीन महीने इस काम में लग गए। पहले पहल मैं दूसरे ड्राइवरों से कंडक्टर बदलने के बारे में कहता रहता था क्योंकि मैं मिसेज़ कौलिमोर से पीछा छुड़वाना चाहता था लेकिन सभी उसे जानते थे और उसे अपने साथ लेना नहीं चाहते थे।
वहमों भरमों वाला तो मैं नहीं हूँ लेकिन एक दफा एक अजीब बात हो गई। कभी कभी भूख लगती थी तो किसी दूकान से कुछ ले कर खा लिया करते थे। एक दिन भूख लगी तो नज़दीक ही फिश ऐंड चिप्स की दूकान थी। मैं फिश ऐंड चिप लेने चला तो कौलिमोर से भी पुछा कि अगर उस को भी कुछ चाहिए तो लेता आऊँ। उसके पेट में हमेशा गैस रहती थी और बड़े बड़े ढिकार लेती रहती थी और मैं उसकी मिमक्री दोस्तों की महफल में किया करता था। वोह मुझे बोली, ” बामरा, दे आर नो गुड टू यू “. मैं दूकान में गिया और फिश ऐंड चिप्स ले आया और खाने लगा। मिसेज़ कौलिमोर मुझे खाते देख कर फिर बोली, ” बामरा, दे आर नो गुड टू यू, दे आर टूअ औयली “. मैं मुस्करा कर खाता रहा और खाकर मज़ा आ गिया लेकिन पता नहीं क्यों कौलिमोर के लफ़ज़ कि यह अच्छे नहीं मेरे दिमाग में गूंजते रहे। शाम को काम से वापस आ कर रात का खाना खाया और टीवी देख कर दस वजे सो गए। आधी रात को पेट में दर्द होने लगा, मैं उठ कर बैठ गिया। कुलवंत को भी जाग आ गई और किया बात थी मुझ से पुछा। मैंने बताया तो वोह नीचे किचन में गई और सौंफ अजवायन और कुछ और मसाले डाल कर एक बड़ा कप्प चाए का ले आई। चाए पी कर मैं लेट गिया लेकिन दर्द कम नहीं हो रही थी और बढ़ती ही जा रही थी, फिर कुलवंत हौट वाटर बॉटल ले आई। बहुत कुछ किया लेकिन दर्द बढ़ता ही जा रहा था। आखर में मैंने एमरजैंसी डाक्टर के लिए टेलीफून किया और डाक्टर जल्दी ही आ गिया। सब कुछ पूछ कर उस ने मुझे छोटी छोटी गोलिआं दीं। दो घंटे बाद मुझे कुछ कुछ आराम आने लगा और मुझे नींद आ गई।
दूसरे दिन मैं काम पर चले गिया और कौलिमोर को देखते ही मन में अजीब सी घुटन हुई और मैंने उसे बुलाया नहीं। आधा दिन बीत गिया, और कोई बात नहीं हुई। आखर में कौलिमोर ही बोली, ” had trouble with mrs. bhamra ?”. अब मुझे हंसी आ गई और बोला, ” these ladies are too cruel mrs. kaulimore !”. कुछ और बातें हुईं और पता नहीं क्यों इस दिन के बाद वोह मेरे साथ घुल मिल गई और हंस हंस बातें करने लगी। अब हमारी जोड़ी बहुत अच्छी हो गई और हर दम हम एक दूसरे को हँसाते रहते। दूसरे ड्राइवर हैरान हो कर मुझे पूछते, ” भमरा, कौन सी जड़ी बूटी इस को दे दी है, यह तो किसी के साथ बोलती ही नहीं थी “. अब मेरे दिन अच्छे बीतने लगे। एक दफा मिसेज़ कौलिमोर बीमार पड़ गई। उस के पति ने मुझे बताया तो मैं उसके साथ उसके घर चला गिया। उस का घर मार्श लेंन पैन्डीफोर्ड में था। वोह सोफे पर बैठी थी, मुझे देखते ही उसके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई और अपनी बेटी किटी को बोला कि वोह मेरे लिए चाय लेकर आये। कौलिमोर की बेटी किटी बिलकुल अपनी माँ जैसी थी, मैं ने उसको कह दिया, ” you are a carbon copy of your mum kity !” सभी हंस पड़े। इस के बाद तो जितनी देर हम ने इकठे काम किया, वक्त बहुत अच्छा गुज़रा।
अब हम अपने नए घर में आ गए थे. पुराने घर की कहानी यह थी अगर हम एजेंट को दे देते तो शाएद जल्दी बिक जाता लेकिन जब बिका तो बहुत जल्दी बिक गिया. फिर जसवंत का ही एक दोस्त था जो उसके साथ काम करता था और वोह मिआं बीवी किसी के घर किराए पर रहते थे. एक दिन वोह हमारे नए घर में जसवंत के साथ आया और मकान देखने की इच्छा जाहर की. इस शख्स का नाम था साधू सिंह. मैं और जसवंत साधू सिंह को गाडी में बिठा कर कार्टर रोड पर ले गए और उसको घर दिखलाया. पुराना फर्नीचर हमने इस घर में ही छोड़ दिया था, इस लिए मैंने साधू सिंह को बता दिया कि मकान की कीमत में सारा सामान भी शामिल था. यह सुन कर साधू सिंह भी खुश हो गिया किओंकि उस को भी सामान खरीदने की कोई ज़हमत नहीं उठानी पड़ने वाली थी. हमारा सौदा हो गिया. साधू बिचारा पड़ा लिखा नहीं था और उसको कुछ पता नहीं था कि लोन कैसे लेना था और वकील कैसे करना था. मेरा वकील साधू सिंह के लिए काम नहीं कर सकता था किओंकि कानून के मुताबक खरीदने और बेचने वाले का वकील इलग्ग इलग्ग ही होता है, इसलिए हम वाटरलू रोड पर ही एक दुसरे वकील के पास जा पहुंचे और सारी डीटेल लिखवा दी गई.
अब बात थी लोन की, तो मैं अपनी ही बैंक के मैनेजर के पास साधू सिंह को ले गिया, मैनेजर से बात की और यह भी किस्मत वाली बात ही थी कि मैनेजर मान गिया. उस समय लोन कुछ मुश्किल से मिलता था. हमारा बड़ा काम हो गिया था और मेरी भी सरदर्दी ख़तम हो गई थी. एक दिन हमने साधू सिंह और उसकी पत्नी को अपने घर खाने पे बुलाया. जसवंत और उसकी पत्नी बलबीरो भी आ गए और उस रात हमारे घर में काफी रौनक थी और कुलवंत का परिचय साधू सिंह की पत्नी से भी हो गिया. इसके चार हफ्ते बाद ही साधू सिंह और उसकी पत्नी इस घर में आ गए. अब तो साधू सिंह और उस की पत्नी देबो के पोते पोतीआं हैं और पड़े लिखे हैं लेकिन उस वक्त उन्होंने हमारा बहुत रीगार्ड किया था. अब भी जब कभी देबो कुलवंत को मिलती है तो बहुत खुश हो कर बोलती है. अब तो मैं बाहर जाता नहीं हूँ लेकिन कुछ साल पहले जब भी कभी साधू सिंह मुझे किसी पब्ब में मिलता था, तो बगैर पूछे ही बीअर का ग्लास टेबल पर मेरे आगे रख देता था किओंकि यह इंगलैंड की सेवा या इज़त कहलाती है. मैं भी बाद में उसके लिए ग्लास ले आता था लेकिन पहले किसी के आगे ग्लास रखना किसी की इज़त करना समझा जाता है.
इस नए घर में आने के बाद जल्दी ही पिंकी और रीटा भी इस नए स्कूल में आ गईं जो कोलमैन सट्रीट में अभी भी है और यह हमारे घर से पचास गज की दूरी पर ही है. अब हमारे लिए बहुत आसान हो गिया था. जसवंत का घर भी पचीस तीस गज ही था. जसवंत अपनी फैक्ट्री में रात को काम करता था और उस की पत्नी बलबीरो भी किसी कपडे की फैक्ट्री में काम करती थी. जसवंत ने हमें कहा कि वोह संदीप को अपने पास रख लिया करेगा और कुलवंत बेफिक्र हो कर काम पे जाए. मैं भी जसवंत को कुछ पाऊंड हर हफ्ते दे दिया करता था जिस से वोह बीअर पी लेता था और वोह भी खुश था. जसवंत दिन को अपनी बैड में सोया रहता और संदीप वहां अपने खिलौनों से खेलता रहता, कभी जसवंत उठ कर संदीप को कुछ खाने के लिए दे देता था. स्कूल नज़दीक होने से पिंकी रीटा को भी कोई मुश्किल नहीं थी और वोह स्कूल से निकल कर जसवंत के घर से संदीप को ले कर अपने घर आ जातीं जो सड़क की दुसरी ओर ही है, और खाना गर्म करके खुद भी खातीं और संदीप को खिलातीं. मुझे भी बहुत वक्त मिल जाता था और कभी मैं संदीप को ले आता था. यह सब लिख्ते हुए अब भी मुझे बहुत हैरानी हो रही है कि इतने छोटे बच्चे उस वक्त इतने समझदार थे और अपनी जिमेदारी को पूरी तरह निभाते थे. जब कभी मैं काम से जल्दी आ जाता तो बच्चों के लेकर पार्क में चले जाता और वोह पार्क की प्ले ग्राऊंड में खेलते रहते और बाद में हम कुलवंत को फैक्ट्री से लेने चल पड़ते. फैक्ट्री से कुलवंत जब बाहर निकलती तो बच्चों को देख कर उस की थकान भी दूर हो जाती. कितने अछे दिन थे वोह !
अब हम इस घर में आये तो सब से ज़िआदा लगाव हमारा इस घर के गारडन से था. पहले मालक ने गार्डन को बहुत अच्छा रखा हुआ था लेकिन जैसे हर नए मालक को शौक होता है इस को अपने ढंग से रखने का, इसी तरह हमने भी कुछ अदला बदली शुरू कर दी. गार्डन में गुलाब के काफी पौदे थे, हम ने कुछ और रंगों के नए पौदे लगा दिए. बहुत से रंगों के डेलिये के बल्व ज़मीं में गाड़ दिए जो गर्मिओं के आख़री दिनों में ज़मीन से बाहर आते हैं और इन के फूल बहुत बड़े बड़े और खूबसूरत रंगों के होते हैं। उस समय टाऊन की मार्किट में गार्डन के पलांट बेचने वाले बहुत गोरे आते थे जिन से गार्डन का सारा सामान मिल जाता था। हर हफ्ते हम कुछ न कुछ ले आते। मुझे तो लान से बहुत मोह था, मैं हर हफ्ते लान मावर घास के ऊपर चला देता और किनारे कैंची से काट देता जिस से लान खूबसूरत लगता। बात तो मामूली ही थी लेकिन रोज़ रोज़ धियान देने से अपने मन को ही प्रसन्ता मिलती थी। थोह्ड़ा सा हिस्सा हम ने सब्ज़िओं के लिए रख लिया। यों तो हर किसम की सब्जीआं सस्ती ही मिल जाती थी लेकिन अपने घर ही बीजने की एक हॉबी ही थी। हम लैटिस के दस बारह पौदे लगा देते, तीन चार आलू बीज देते, चालीस पचास प्याज़, मूली, धनिआ, मेथी, पुदीना और हालों जो पंजाब में बहुत होती है और इस में आरएन बहुत होता है। फूलों के बीच में ही हम चार पांच कैबेज के प्लांट लगा देते, यहां तक कि कुलवंत काले चने भी बीज देती जो अगस्त सतम्बर के महीने में हो जाते थे और हम तोड़ तोड़ कर हरे चने जिस को पंजाब में छोलिआ कहते हैं, खाते और पंजाब की याद ताज़ा करते।
उस समय अँगरेज़ लोग अपने अपने गार्डन में बहुत कुछ बीजा करते थे। इंग्लैण्ड एक टापू ही तो है और जगह के हिसाब से ही यहां के मकान बहुत छोटे हैं लेकिन कई घरों के पीछे गार्डन बड़े थे और गोरे लोग बहुत कुछ बीजते थे। उस समय हर घर के पीछे एक बड़ा सा ड्रम्म रखा होता था जिस में बारश का पानी भरा ही रहता था और यह बारश का पानी पौदों के लिए बहुत अच्छा होता है। अब यह ड्रम शायद ही कोई रखता हो क्योंकि ज़माना बदल गिया है। उस समय बहुत गोरे काउंसल से कुछ ज़मीन किराए पर ले लेते थे जिस को अलॉटमेंट कहते थे। इस में लोग हर तरह की सब्जीआं बीजा करते थे और आपस में मुकाबले भी होते थे। कुछ हमारे इंडियन लोगों ने भी लेने शुरू कर दिए थे। यह मानना पड़ेगा कि अँगरेज़ लोगों को खेती बाड़ी में बहुत नॉलेज है। एक दफा एक गोरे ने मुझे दो प्याज़ दिए, यकीन मानों प्याज़ एक किलो का होगा, इतना बड़ा प्याज़ मैंने अपनी ज़िंदगी में नहीं देखा। जो कद्दू हैं, यहां कोई सौ किसम के होंगे। एक दफा मैं अपने दोस्त की अलाटमेंट में गिया, यहां कद्दुओं का मुकाबला था, देखकर ही मैं हैरान हुआ कि कद्दू को एक छोटी करेन से उठाया गिया था, मेरा खियाल है कि यह कद्दू एक कुइंटल का होगा। यह चीज़ें सिर्फ मुकाबले के लिए ही उगाई जाती थीं जिन को तरह तरह की खाद दी जाती थी।
मेरा दोस्त ग्रेवाल जो अब इस दुनिआ में नहीं है, उस की अलाटमेंट उसके घर के पीछे ही होती थी और उसने अंडर ग्राउंड एक बिजली की केबल ज़मीं के बीचो बीच अपनी अलाटमेंट तक फिक्स की हुई थी जिन से वोह जब चाहे अपने हाई फाई के स्पीकर्ज़ कुनैक्ट कर लेता था और गाने सुनता रहता था और साथ ही अपनी इस ज़मीन में खेती भी करता रहता था। अपने इस छोटे से खेत में उस ने छोटी सी शैड भी बनाई हुई थी, जिस में उस ने गार्डन के टूल रखे हुए होते थे। जितनी भी सब्जीआं वोह उगाता था, उनको सस्ते में वोह दूकान पर बेच देता था और उससे मिले पैसे वोह किसी चैरिटी को दे देता था।
ग्रेवाल बहुत मस्ताना किसम का आदमी था, उसके बच्चे दूर दूर रहते थे और उसकी पत्नी बहुत अच्छे सुभाव की होती थी। 1990 के करीब वोह परलोक सिधार गई थी। इस के बाद ग्रेवाल शराब पीने लगा था लेकिन चैरिटी का काम उसने नहीं छोड़ा था। ग्रेवाल के पास इतने फ़िल्मी गानों के रिकार्ड थे कि एक अलमारी भरी हुई थी। मैं इंगिलश धुन पर गाये गाने बहुत पसंद किया करता था और उसने मेरे लिए दो कैसेट पर गाने रिकार्ड करके मुझे दिए थे जिसमें ज़्यादा आशा भोंसले और किशोर कुमार के थे। अब दो साल हुए वोह भी यह संसार छोड़ गिया है लेकिन मुझे वोह अपनी अलाटमेंट में काम करता ही दिखाई देता है और उसके दिए वोह बड़े बड़े कद्दू उस की याद दिलाते रहते हैं।
चलता.. . . . . . . .
बहुत रोचक जानकारी भाई साहब ! आपका व्यक्तित्व बहुत पारदर्शी था, जिससे सभी आपके अपने हो जाते थे. आज भी आप वैसे ही हैं.
धन्यवाद ,विजय भाई .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। कथा में दी गई सभी जानकारियों का ध्यान से अध्ययन किया। रोचक और ज्ञानवर्धक कथा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
धन्यवाद मनमोहन भाई .
प्रिय गुरमैल भाई जी, आज मार्च 17 है. आप पर पहला ब्लॉग गुरमैल-गौरव-गाथा-17 मार्च 2014 को प्रकाशित हुआ था और हमें अच्छी तरह याद है, कि जिस दिन यह ब्लॉग प्रकाशित हुआ था, उस दिन आपकी खुशी छिपाए नहीं छिपती थी. दो साल कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला. आपको संपूर्ण अपना ब्लॉग जगत के ब्लॉगर्स और पाठकों की ओर से कोटिशः प्रणाम और अन्य उपलब्धियों के लिए ढेरों शुभकामनाएं. पहले ब्लॉग की दूसरी वर्षगांठ की बधाइयां.
लीला बहन , आप को 17 मार्च की डब्बल वधाई हो किओंकि आप ने ही एक बूटा लाया था ,जिस के फल हम खा रहे हैं .
गुरमैल भाई, आज मार्च 17 है. आप पर पहला ब्लॉग गुरमैल-गौरव-गाथा-17 मार्च 2014 को प्रकाशित हुआ था और हमें अच्छी तरह याद है, कि जिस दिन यह ब्लॉग प्रकाशित हुआ था, उस दिन आपकी खुशी छिपाए नहीं छिपती थी. दो साल कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला. आपको संपूर्ण अपना ब्लॉग जगत के ब्लॉगर्स और पाठकों की ओर से कोटिशः प्रणाम और अन्य उपलब्धियों के लिए ढेरों शुभकामनाएं. पहले ब्लॉग की दूसरी वर्षगांठ की बधाइयां.
प्रिय गुरमैल भाई जी, मस्ताने को मस्ताना मिला, कर-कर लंबे हाथ. भाई, कहानी लिखने का इतना मस्ताना अंदाज़ बहुत पसंद आ रहा है. मन करता है, एपीसोड कभी खत्म ही न हो. पिक्चर अभी बाकी है, प्रतीक्षा रहेगी.
लीला बहन ,कोई भी नया लेखक चाहता है कि उस की रचना को कोई पड़ कर अपना कॉमेंट दे .आप, विजय भाई, मनमोहन जी और विभा बहन मेरे सभी एपिसोड पड़ रहे हैं और मुझे इस में पर्संता मिलती है और आगे लिखने की हिमत मिलती है .
प्रिय गुरमैल भाई जी, अब आप नए लेखक नहीं हैं, मंजे हुए लेखक हैं. आप अच्छा लिखने के मस्ताने हैं, हम भी अच्छा पढ़ने के मस्ताने हैं. हम सच कह रहे हैं, सच्चाई से सराबोर इतनी रोचक आत्मकथा हमने कभी नहीं पढ़ी.
लीला बहन ,अब तो लगने लगा है कि यह मस्तानापन चरण सीमा को छू ही लेगा . बस आप सब की हौसला अफजाई मिलती रहे .
छोटी से छोटी बात याद रहना बड़ी बात है
रोचक लगता है आपका लेखन
विभा बहन ,आप की बातों से मुझे हौसला अफजाई मिलती है .बहुत बहुत धन्यवाद जी .