कविता : गोशे-गोशे में मेरे तुम…
दूर तक फैले समुंदर की तरह
गोशे-गोशे में मेरे तुम ही समाये हो
दिल करता है अब दिल से निकल
नज़र के सामने आओ, देखना चाहती हूँ
क़रीब से सुनना है तुम्हे
कुछ कहना भी चाहती हूँ
आकाश की नीली चादर
जो लिपटी है समुंदर के सीने से
ऐसे ही लिपट जाना चाहती हूँ
मुद्दत से नींद गायब हुई आँखों से
अब थोड़ा सोना चाहती हूँ
— डॉ पूनम माटिया