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अनिल शर्मा द्वारा डॉ पूनम माटिया के साक्षात्कार के कुछ अंश

पति, बच्चे, नाती-पोते, रिश्तेदार, साहित्य और कार्यक्रम …कैसे एडजस्ट होता है ये Dr Poonam Matiaसब?
मैं अपने पति, सास-श्वसुर और छोटी बेटी तरंग के साथ रहती हूँ| पति इंजीनियर है, ससुर आयुर्वेदिक चिकित्सक हैं और बिटिया आर्किटेक्ट बनने की तैयारी में है इसलिए सप्ताह के पाँच दिन तो हॉस्टल में रहती है| सप्ताह के अंत में ही दो दिन (शुक्रवार की शाम से सोमवार की सुबह) के लिए घर आती है|
बड़ी बिटिया की शादी हुए दो वर्ष से अधिक हो गए हैं और वह अपनी ससुराल में दिल्ली में ही रहती है| कभी-कभार बहुत बुलाने पर मेरी नातिन अनैषा और दामाद राहुल के साथ खाने पर आ जाती है| इसलिए अब जीवन में वो आपा-धापी नहीं है जो आज से ५-७ वर्ष पहले तक थी| किन्तु सृजनात्मक सोच और साहित्य-गद्य और पद्य , दोनों के प्रति लगाव हर वक़्त मुझे लिखने की दौड़ में लगाए रखता है| रोज़ कुछ नया न लिख पाऊं तो कुछ खाली-खाली लगता है और लगता है कि- क्या अब मैं फिर कभी नहीं लिख पाऊँगी| फेसबुक की अलग ज़िम्मेदारियाँ हैं-इतने अधिक मित्र, फोलोअर्स, पोस्ट वगैरह सभी का ही तो ध्यान रखना पड़ता है साथ ही एस एम एस एवं व्हाट्सअप्प भी समय मांगता है, कुछ पत्र-पत्रिकाओं में तो हर सप्ताह कोई रचना या ताज़ा गतिविधियों के समाचार तस्वीरों सहित देने ही होते हैं जैसे ‘विशेष दृष्टि’, ‘वुमन एक्सप्रेस’, ‘दिल्ली अप्टूडेट’, ‘हमारा मेट्रो’ इत्यादि और कभी-२ ‘मिन्ट’ , ‘हिदुस्तान टाइ

अभी तो सागर शेष है ...
अभी तो सागर शेष है …

म्स’ ‘कादम्बिनी’ और ‘स्पुतनिक’ में भी मेरी रचनाएं , तस्वीरें समाचार, साक्षात्कार और विचार प्रकाशित होते हैं|काव्य गोष्ठियां या पुस्तक विमोचन और आजकल तो शादियों के आयोजन रहते ही हैं| ‘ट्रू-मीडिया’ पत्रिका के लिए लेख इत्यादि भी समय मांगते हैं| और हाँ, खाना तो मैं ख़ुद ही बनाती हूँ जिसमें सासु जी भी कुछ-कुछ अपने हाथों का स्वाद घोलती रहती हैं|

माँ शारदे के आशीर्वाद और परिवार के सहयोग से सब व्यवस्थित हो जाता है परन्तु रात में देर तक जागना ज़रूर पड़ता है पर वह भी अब दिनचर्या में एडजस्ट हो गया है| सही मायने में कहें तो मुझे अच्छा लगता है काम से घिरे रहना, कुछ न कुछ पढ़ते रहना भी| नरेश(पतिदेव) तो कह्ते हैं- कुछ भी करो लेकिन कम से कम दो पंक्तियाँ तो रोज़ नयी लिखो ही|

लेखन ने आपका साथ कब पकड़ा और तब पहले-पहल आपने क्या लिखा? पहली रचना के प्रकाशन में परिवार की क्या प्रतिक्रिया रही और कैसा महूसस किया था?
पहली रचना का प्रकाशन– बहुत समय पहले जब छोटी बिटिया के लिए समय-२ पर लिखती थी तो वह छपा अखबार में| अच्छा लगा, हालाँकि वह कविता नहीं थी| फिर ‘सूर्यवंशी चेतना’ में मेरी नाटिका छपी और फिर विभिन्न राज्य के अख़बारों, पत्रिकाओं में कविताएं और लेख छपने शुरू हो गए चाहे वो ग़ाज़ियाबाद हो या गुजरात| रचना का छपना अत्यंत सुखदायी होता है| मध्यप्रदेश, बालाघाट से मेरी कविताओं का छपना शुरू हुआ था और गुजरात के गोधरा में ‘पंचमहल उजागर’ में तो कई बरसों से एक स्तम्भ लगातार छप रहा है ‘पूनम माटिया की कलम से’ किन्तु अब जब दिल्ली की ‘कादम्बिनी’ पत्रिका में रचना को स्थान मिला तो लगा कि कुछ छपा है| जैसे पहली बार प्रथम आने वाले बालक को ह्रदय में उत्सुकता और चाव होता है सबको अपनी रिपोर्ट कार्ड दिखाने का, मैं भी लगभग उसी स्थिति से गुज़री वो बात और है कि अब तक मेरे तीन काव्य संग्रह (एकल) और 5-6 संग्रह संयुक्त रूप से प्रकाशित हो चुके हैं और कई प्रतिष्ठित पत्र–पत्रिकाओं में मेरे लेखन को स्थान मिल चुका है|
परिवार का खुश होना तो लाज़िमी था| मेरी छोटी से छोटी ख़ुशी में सब शामिल होते हैं| सही मायने में तो हर कविता, हर लेख या संग्रह का छपना ऐसा लगता है जैसे प्रथम बार ही प्रकाशन हुआ| ‘अभी तो सागर शेष है,,,,’ हालाँकि मेरा तीसरा एकल काव्य संग्रह है किन्तु लग रहा है जैसे पहली ही कृति प्रकाशित हुई हो|

लेखन की शुरूआत मायके से हो चुकी थी या ससुराल से..आपके लेखन पर ससुराल की क्या प्रतिक्रिया रही?
लेखन की शुरुआत तो मायके में हुयी थी जब मेरा रिश्ता पक्का हो जाने के बाद नरेश के लिए ‘लगभग कविता’ जैसा कुछ लिखती थी हालाँकि वह अधिकतर अंग्रेज़ी में होता था| पर रचना-प्रक्रिया को पंख सही मायने में ससुराल में ही मिले| डॉक्टर श्वसुर जी को भजन लिखने का शौक़ रहा है| पति नरेश को भी अच्छा लगता है कि मैं कुछ नया करती रहूँ यानि क्रिएटिव रहूँ, वे स्वयं भी मेरे लिए जन्मदिन, शादी की सालगिरह ,वैलेंटाइन डे इत्यादि पर नया लिख कर देते रहें हैं और जन-जाग्रति के लिए अत्यंत सरल , सहज भाषा में लेख भी लिखते रहते हैं| मेरे मायके वाले , मेरे स्कूल-कॉलेज की फ्रेंड्स और मेरे विद्यार्थी तो अचंभित होते हैं मेरी हिंदी और कविताओं में इस्तेमाल हुए हिंदी –उर्दू अलफ़ाज़ को देख कर|

साहित्य क्षेत्र में कई अवार्ड्स मिले और मिल रहे हैं भविष्य में और क्या इरादा है?
आपका कार्य समाज में पहचाना जाए, उसके लिए अवार्ड या सम्मान मिले –किसे अच्छा नहीं लगेगा| राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड, भारत गौरव अवार्ड, भारतीय महिला गौरव अवार्ड, शान-ए–हिन्दुस्तान, प्राइड ऑफ़ द कंट्री अवार्ड, मारीशस में कविता को प्रथम पुरूस्कार, असम के मुख्यमंत्री से अवार्ड, दिल्ली में दिल्ली की भूतपूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से समता अवार्ड इत्यादि कई अवार्ड हैं जो इस सोच पुष्ट करते है कि लेखन और सामाजिक कार्य सही दिशा में अग्रसर है| भविष्य के गर्भ में क्या है?- यह तो नहीं मालूम किन्तु इरादा अनवरत लेखन का है और लेखन भी ऐसा जो सार्थक हो, समाजोपयोगी हो और दिल-ओ-दिमाग़ में रह जाए मेरे जाने के बाद भी| ‘गीत, ग़ज़लें, कविता, छंद- हर विधा में कुछ अच्छा लिख पाऊं’ यही इच्छा और प्रयत्न है|

नाती-पोतों के साथ कैसा लगता है समय गुजारने में?
नाती-पोतों के साथ समय गुज़ारना तो ज़िंदगी की असली कमाई होती है| भाई-बहन के नाती-पोते-पोतियाँ तो काफ़ी पहले से खिला रही थी पर अब कोई दस महीने पहले जब अपनी नातिन ‘अनैशा’ हुई तो यूँ लगा जैसे मेरे उद्यान में पहला फूल खिला है| उसके होने की ख़ुशी को कुछ यूँ व्यक्त किया मैंने ………
फिर ख़ुशी का एक कौना मिल गया
हिरनी-सी बेटी को छौना मिल गया
फिर लगा है सूद प्यारा मूल से
हमको बिटिया से खिलौना मिल गया
सब थकान दूर हो जाती है, उसकी भाव-भंगिमाएं देखकर मन भीतर तक खिल जाता है, एक नयी ऊर्जा से भर जाता है या कहें मन बच्चा ही बन जाता है|

पति इंजीनियर और आप साहित्यकार…फिर भी आप दोनों में एक-दूसरे के प्रति समर्पण? कभी इसके विपरीत कोई बात पैदा हुई है?
‘पति इंजीनियर और मैं साहित्यकार फिर भी एक दूजे के प्रति समर्पण’ –हाँ, है समर्पण और क्यों न हो एक दूजे के पूरक होना चाहिए पति-पत्नी को, साहित्यकार तो मैं बाद में बनी पहले तो विज्ञान की छात्रा और फिर शिक्षिका रही हूँ और साथ ही डायटीशियन भी| नरेश इंजीनियर हैं| यह उनका प्रोफ़ेशन है| भीतर से तो वो एक चिन्तक, विचारक और काउंसलर हैं| एक स्वस्थ और गहरी सोच के व्यक्तित्व हैं| जानकारी के विपुल भण्डार हैं, साथ ही मेरे लिए तो कवि भी हैं और पहले श्रोता तथा आलोचक एवं सलाहकार भी| चाहे मेरी ट्यूशन क्लासेज़ हों या चाहे पेंटिंग्स की हॉबी आर्ट क्लासेज़ या फिर गद्य-पद्य लेखन- हर कार्य में पूर्ण समर्थन और सहयोग रहता है तो कोई विपरीत स्थिति पैदा हो ऐसा तो प्रश्न ही नहीं उठता बल्कि अगर परिवार से बाहर कहीं कुछ विपरीत होता भी है तो अपने विचारों और साथ से उसे भी बदलने में समर्थ हैं वे|

कैसा लगता था शादी से पहले मां का साथ जिसमें लाड़-प्यार-दुलार और डांट कभी मार भी शामिल थी?
शादी से पहले ही नहीं माँ के लाड़-प्यार-दुलार और डांट तो शादी के बाद भी शामिल रहा| ख़ैर पहले की बात तो और ही होती है – मेरा अधिकतर समय पढ़ाई–लिखाई में ही गुज़रा शादी तक| रात को देर तक या फिर सारी-२ रात पढ़ना और सुबह सोना- माँ की डांट तो मिलती ही थी – ‘क्या करेगी ससुराल में जाकर, कौन सोने देगा इतनी देर? घर के काम–काज भी सीख ले वरना मुश्किल आएगी’ रोज़ ये सब सुनने को मिल ही जाता था| किन्तु उन्हें विश्वास भी था कि उनकी बिटिया समर्थ है किसी भी परिस्थिति में स्वयं को ढालने में और खाना बनाना तो वैसे भी कॉलेज की पढ़ाई का मुख्य विषय रहा है तो समय पड़ने पर सब कर ही लेगी| तो डांट ऊपरी तौर पर मिलती और प्यार भरपूर पर मार कभी पड़ी नहीं| कहीं से आते थे तो सबसे पहले मेरी नज़र उतारती थीं| आज जब दिसम्बर २७, २०१५ को मैंने अपनी माँ को खोया तो एक कोना है जो रिक्तता का एहसास दिलाता रहता है| जब वो थीं तो मैं मायके में भाभियों के साथ बतियाती थी और मम्मी व्यंजन बनाने में लगी रहती थीं| तब भी कम ही बैठती थी वो बतियाने| चार पंक्तियाँ उनको ध्यान में रखते हुए कहीं:
टूटती जब हर इक आस है / माँ ही होती तेरे पास है
प्यार से तुझको सहलाती वो/तेरा हर लेती संत्रास है

‘फंदा, बूंद सागर’…ने जिंदगी को क़रीब से देखा है तो इसके उतार-चढ़ाव में क्या खोया और क्या पाया आपने?
‘फंदा – बूँद शब्द, अर्थ है सागर ….’
यह मेरी रचना है जिसमे मैंने ‘फंदा’ शब्द को अलग-अलग सन्दर्भ में परिभाषित/विश्लेषित करने की चेष्टा की है| सही कहा अनिल आपने कि ‘उतार-चढ़ाव से गुज़रती है’| जिस प्रकार जीवन का चक्र बचपन की चंचलता, सहजता से होते हुए जवानी के जोश और काम की तलाश तथा वृद्धावस्था में अनुभव के श्वेत वर्ण को प्राप्त होता है उसी प्रकार बचपन में जो ‘स्वेटर का फंदा’ सृजन का प्रतीक होता है वही एक कृषक के लिए ‘फांसी का फंदा’ क्यों बन जाता है? जवान लड़के–लड़कियों के लिए क्यों ‘खाप पंचायत’ इसे अपनी झूठी मान-प्रतिष्ठा की दुहाई देकर फांसी का फंदा बना देती है, क्यों विवाह को एक पवित्र बंधन न मानते हुए आज के ज़माने में इसे ‘गले का फंदा’ समझा जाने लगा है? यही प्रश्न उठाती है ये रचना| और हम देखते हैं कि हमने अपनी मासूमियत अपना बचपना सब खोकर पाया तो क्या- केवल हताशा, निराशा, उद्विग्नता , लड़ाई-झगड़ा, मार-काट ही| क्यों हम व्यवस्था नहीं बनाते? क्यों सरकारें आती-जाती हैं और अन्नदाता के हालात इस कृषि-प्रधान देश में सुधरते नहीं? आज विवाह के प्रति हम, ख़ासकर लड़कियाँ इतनी उदासीन क्यों हैं?
समाज के स्वरुप को सुधारने के प्रयत्न होने चाहिए ताकि जो हमने खोया वो फिर से पा सकें और भारतीय संस्कृति पर नाज़ कर सकें आज के युवा|

कविता और ग़ज़ल- दोनों पर समानाधिकार कैसे संभव हो पाता है?

कविता और ग़ज़ल पर समानाधिकार- अनिल जी! मैं आधिकारिक तौर पर बहुत देर से काव्य के क्षेत्र में आई| शुरुआत तो बस मन के भावों, उबलते–उफनते ज़ज्बातों को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करने से की|
हिंदी साहित्य की विद्यार्थी न होने के कारण भावों पर ही जोर रहा कथ्य और शिल्प की समझ तो शनैः शनैः आ रही है| छंदमुक्त रचनाओं को सही मायने में मैंने कविता कहा भी नहीं| हालाँकि अब प्रचुर मात्रा में लेखन उसी दिशा में है| छंदबद्ध सृजन यानि दोहे, चौपाई ,कुंडलियाँ , गीत, ग़ज़ल, छंदबद्ध कविता की ओर कुछ ही समय से अग्रसर हुयी हूँ तो साहित्य के सिद्धस्थ, सशक्त हस्ताक्षरों को पढ़ना, सुनना और उनसे सीखने का क्रम दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया है| अब नाम लेने लगूं तो कई नाम हैं जिनके लेखन को पढ़कर, जिनसे बात कर बहुत सीखा है मैंने चाहे वो ग़ज़ल की बारीकियाँ हों या उन्हें पढ़ने का अंदाज़- यथा जनाब सर्वेश चंदौसवीं, जनाब सीमाभ सुल्तानपुरी, जनाब मंगल नसीम, जनाब ज़फ़र मुरादाबादी, शायर आदेश त्यागी, जनाब गोविन्द गुलशन, शायर मनु भारद्वाज, शायर वीरेंदर क़मर, कवि राजकुमार धर त्रिवेदी और मेरे कई शायर दोस्त| मैं इस मुआमले में ख़ुशनसीब हूँ कि जब भी कभी कुछ जिज्ञासा होती है या उर्दू के इस्तेमाल में अटकती हूँ तो मित्र लोग सहजता से बता–समझा देते हैं| बस इसलिए ही कविता और ग़ज़ल दोनों ही मेरी शाब्दिक अभिव्यक्ति के मुख्य अंग बन गयी हैं| मैं कहती हूँ-
मैं कविता हूँ समय के साथ चलना चाहती हूँ
सरोकारों के ही शब्दों में ढलना चाहती हूँ
नहीं ये कामना मैं प्रेम ही केवल उकेरूँ
भुलाकर ख़ुद को मैं सूरज-सा जलना चाहती हूँ |

कैसा लगता है पतिदेव (श्री माटिया जी) को जब आपके लिए तालियां बजती हैं?
जैसे कि ऊपर किसी प्रश्न के उत्तर में साझा किया की नरेश सदैव मुझे प्रोत्साहित करते रहते हैं कुछ नया लिखने को और कई बार मेरे साथ आयोजनों में भी श्रोता के तौर पर जाते हैं जो लाज़िमी है कि वो मेरे लिए बजने वाली तालियों के प्रत्यक्ष गवाह बने| उन्ही के शब्दों में, ‘पूनम जब-जब साहित्यिक क्षेत्र में एक नया क़दम बढ़ाती हैं, मुझे उतनी ही अधिक प्रसन्नता होती है और हृदय उन्हें उत्साहित करता है कि अभी और आगे, फिर और आगे जाना है, यह सिर्फ़़ बूंद है अभी तो सागर शेष है..’ उनके यही विचार मुझमें एक विश्वास पैदा करते हैं कि सच में कुछ अच्छा, सार्थक लिखा और निभाया गया| इसलिए बहुत पहले मैंने कहा था :
मेरे हमसफ़र गर तू है
तो ये आसमां है ये ज़मीं है
गर तू नहीं तो ख़ुदा ही जाने
मेरी कहाँ बस्ती है…..

और
माना कि आईना मेरा अक्स दिखाता है
पर वो तू ही है जो मुझे ज़माने से रु-ब-रु करता है!

– अनिल शर्मा 

डॉ. पूनम माटिया

डॉ. पूनम माटिया दिलशाद गार्डन , दिल्ली https://www.facebook.com/poonam.matia [email protected]

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