“गज़ल”
“गज़ल”
देखो जरा मेरी तन्हाइयों को
दूर खिसकती इन परछाइयों को।
सुबह को बढ़ें दोपहर से ढलें
चूमती हुयी अपनी खरखाइयों को॥
अंधेरों से लड़ती रही रात भर
संवरती सुबह नित मुलाक़ात पर
खुद ही जुदा हो वह जा रहीं हैं
अब मिलने चली नई रूसवाइयों को॥
घर छोड़ अपना किधर जा रहीं है
परायों सा चेहरा किये जा रही है
छद्म सबको रुलाया है हर मोड पर
अब न तौलो सबर तंग गहराइयों को॥
संग-संग बसरकर मुकर जा रही है
किसको झटक किसके घर जा रही है
मिला मरहम तो देखो हुयी बाँवरी
लय परखने चली साज शहनाइयों को॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
good.
सादर धन्यवाद आदरणीय भमरा जी, हार्दिक आभार
लाजवाब
सादर धन्यवाद आदरणीय राज किशोर मिश्र जी, हार्दिक आभार