गीतिका/ग़ज़ल

“गज़ल”

“गज़ल”

देखो जरा मेरी तन्हाइयों को
दूर खिसकती इन परछाइयों को।
सुबह को बढ़ें दोपहर से ढलें
चूमती हुयी अपनी खरखाइयों को॥
अंधेरों से लड़ती रही रात भर
संवरती सुबह नित मुलाक़ात पर
खुद ही जुदा हो वह जा रहीं हैं
अब मिलने चली नई रूसवाइयों को॥
घर छोड़ अपना किधर जा रहीं है
परायों सा चेहरा किये जा रही है
छद्म सबको रुलाया है हर मोड पर
अब न तौलो सबर तंग गहराइयों को॥
संग-संग बसरकर मुकर जा रही है
किसको झटक किसके घर जा रही है
मिला मरहम तो देखो हुयी बाँवरी
लय परखने चली साज शहनाइयों को॥

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

4 thoughts on ““गज़ल”

  • good.

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद आदरणीय भमरा जी, हार्दिक आभार

  • राज किशोर मिश्र 'राज'

    लाजवाब

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद आदरणीय राज किशोर मिश्र जी, हार्दिक आभार

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